अदम गोंडवी: एक विद्रोही स्वर समाज और सत्ता के प्रतिष्ठानों पर
लेखिका: सुनीता मिश्रा, भोपाल, मध्य प्रदेश
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़ दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये।
मुशायरों में, घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफ़ेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान जिसकी ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो यदि अचानक माइक पर आ जाए और फिर ऐसी रचनाएँ पढे कि सभी श्रोता ध्यान मग्न हो जाएं समझिए वो इंसान और कोई नहीं अदम गोंडवी हैं।
22 अक्तूबर 1947, गोंडा, परसपुर के आटा गाँव में, अदम जी का जन्म हुआ। अदम जी नें कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाया। जिसने ग़ज़ल की दुनिया में दुष्यंत के तेवर को बरकरार रखा। जिन्होंने शानो- शौक़त की दुनिया से इतर जीवन की सच्चाई, कटुता, यथार्थता को गज़ल में अपना विषय बनाया, जो भारत के जन-जन के कवि रहे, वह थे अदम गोंडवी। आपका मूल नाम रामनाथ सिंह था। एक छोटे से गाँव से निकलकर अदम ने हिंदी गज़लकारों की दुनिया में अपना विशिष्ट स्थान बनाया और भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। एक ऐसा कवि जो बौद्धिक विलासिता से दूर किसान, गरीब, मज़दूर, दलित, शोषित और वंचित तबकों की बात करता था। एक ऐसा कवि जिसकी रचनाओं में व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और आक्रोश था। अदम कभी भी सत्ता के चारण नहीं रहे।खरी और सच्ची बात उन्होंनो गज़लो में रखी। वे लगातार भारतीय समाज, शासन में व्याप्त जड़ताओं और राजनीतिक, चाटुकारिता, मौकापरस्ती के विरोध में कलम चलाते रहे।
उन्होंने बिना लाग-लपेट के ज़िंदगी की बेबसी को गज़लों में व्यक्त किया। अदम साहब की शायरी में अवाम बसता है उसके सुख दुःख बसते हैं शोषित और शोषण करने वाले बसते है। अदम ख्वाब, चांद तारे इश्क़ के आशियाने और आसमान की बातें नहीं करते हैं और ना ही इश्क़ की खुमारी उनकी कविताओं में है। उनकी कविताओं में भय, भूख, गरीबी और भ्रष्टाचार का बेखौफ रूप झलकता है ।
दुष्यंत जी ने अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे, उस मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की है।
यह अजीब इत्तफ़ाक भी है कि दोनों ने अपने-अपने जज़्बातों के इज़हार के लिए ग़ज़ल का रास्ता चुना। अदम जी की गंवई अंदाज में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली सबसे जुदा और विलक्षण है। अदम गोण्डवी के चुनिंदा शेर जो समाज और व्यवस्था को आइना दिखाते हैं-
डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्क़ाम कर देंगे,
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे।
काजू भुने पलेट में व्हिस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
संप्रदायिकता जो राजनीति में मूल मुद्दा बना हुआ था जिसके सहारे वोटों की हार जीत को मापा जाता है। अदम जी नें इस नाजुक़ विषय के तीर अपनी कलम की कमान से छोड़े –
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये,
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये।
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है,
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये।
इंसानियत की पैरवी करते हुए बोले जो बातें इतिहास में दफ़न हो गई, अपने स्वार्थ के लिए वे क़ब्रे क्यों खोदी जा रहीं हैं। ग़लती किसी और की, भुगते कोई और।
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
अदम साहब की शायरी में गरीब-गुरबों के दुःख सुख शामिल थे।
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को।
सब्र की इक हद भी होती है, तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को।
सामाजिक नाइंसाफ़ियों को दर्ज करते अदम गोंडवी लिखते है-
चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए,
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब।
अदम महिलाओं पर हिंसा और बलात्कार की घटनाओ पर कुछ इस तरह संवेदना व्यक्त की।
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई,
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई।
अदम नें हमेशा निडरता से सधे हुए लहज़े में अपनी बात रखते हैं। अदम नें आधारभूत ज़रूरतों से वंचित वर्ग के लिए लिखा –
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खि़लाफ़
दोस्त मेरे, मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
अदम गौंडवी का यह अदम्य साहस ही था जिनकी कलम न राजनीति के खेमे के आगे झुकी न भ्रष्टाचारियों के सामने रुकी, वे सच की कड़वाहट जानते थे, सच की धार भी पहचानते थे।वंदनीय हैं अदम जी, जिन्होंने अपनी गज़लों में सत्ता-समाज के कड़वे सच को बेबाकी से उजागर किया है।