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अदम गोंडवी: एक विद्रोही स्वर समाज और सत्ता के प्रतिष्ठानों पर

लेखिका: सुनीता मिश्रा, भोपाल, मध्य प्रदेश

संप्रदायिकता जो राजनीति में मूल मुद्दा बना हुआ था जिसके सहारे वोटों की हार जीत को मापा जाता है। अदम जी नें इस नाजुक़ विषय के तीर अपनी कलम की कमान से छोड़े –

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये,
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये।
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है,
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये।

इंसानियत की पैरवी करते हुए बोले जो बातें इतिहास में दफ़न हो गई, अपने स्वार्थ के लिए वे क़ब्रे क्यों खोदी जा रहीं हैं। ग़लती किसी और की, भुगते कोई और।

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं;  जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

अदम साहब की शायरी में गरीब-गुरबों के दुःख सुख शामिल थे।

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को।
सब्र की इक हद भी होती है, तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को।

सामाजिक नाइंसाफ़ियों को दर्ज करते अदम गोंडवी लिखते है-

चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए,
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब।

अदम महिलाओं पर हिंसा और बलात्कार की घटनाओ पर कुछ इस तरह संवेदना व्यक्त की।

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई,
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई।

अदम नें हमेशा निडरता से सधे हुए लहज़े में अपनी बात रखते हैं। अदम नें आधारभूत ज़रूरतों से वंचित वर्ग के लिए लिखा –

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खि़लाफ़
दोस्त मेरे, मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

अदम गौंडवी का यह अदम्य साहस ही था जिनकी कलम न राजनीति के खेमे के आगे झुकी न भ्रष्टाचारियों के सामने रुकी, वे सच की कड़वाहट जानते थे, सच की धार भी पहचानते थे।वंदनीय हैं अदम जी, जिन्होंने अपनी गज़लों में सत्ता-समाज के कड़वे सच को बेबाकी से उजागर किया है।

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