आत्मिक शांति का माध्यम: कला
लेखक: अरविन्द कुमार, समकालीन अंग्रेजी लेख़क
कला में कदम रख सपनों को कैनवास पर उतारने का यदि शौक रखते हैं तो, जानिए बनारस के जाने माने समकालीन लेखक अरविन्द कुमार का इस पर क्या कहना है। कला ही आत्मिक शान्ति का माध्यम है। यह कठिन तपस्या है और साधना है।
कला में ऐसी शक्ति होती है कि वह लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे ऐसे ऊँचे स्थान पर पहुँचा दे जहाँ मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है।
English Alphabet के First Letter ‘A’ से पुष्पित, पल्लवित, निर्मित शब्द Art व देवनागरी लिपि के प्रथम अक्षर ‘क’ से कुसुमित, अंकुरित शब्द ‘कला’ से इस सम्पूर्ण धरा का शायद ही कोई जन अछूता हो, अनभिज्ञ हो, अपरिचित हो। सृष्टि के सर्वाेत्तम कृति से भी पुराना इतिहास है कला का। कला का उद्भव व उद्गम प्रकृति के गर्भ से हुआ है। प्रकृति के प्रत्येक तत्व चाहे वह सूर्य हो, चाँद हो, तारे हों, आकाश हो, नदी हो, समुंद्र हो, झील हो, लहरें हों, सब के सब मानव-जीवन से युग-युगान्तर जुड़े हैं। इसी प्रकृति के बीच में रहकर हमारे ऋषियों, मुनियों, तपस्वीयों, योगीयों ने बेदाग जीवन जिया और अपने जीवन से न जाने कितनों के जीवन में प्रकाश, आनंद, ज्ञान भरते रहे।
जीवन केवल कुछ पाने का नाम नहीं, जीवन केवल लेने का नाम नहीं, जीवन कुछ हासिल करने का नाम नहीं बल्कि जीवन देने का नाम है। जीवन त्याग है, समर्पण है, प्रेम है और बलिदान है। जीवन शकुनी नहीं, दुर्याेधन नहीं, कंस नहीं, रावण नहीं, परशुराम नहीं, दुर्वासा नहीं है। जीवन सूर्य है, जीवन राम और भरत है, जीवन एकलव्य है, जीवन कबीर है, डाॅ. कलाम है, जीवन मैना व सुनथना है, जीवन सावित्री और पन्नाधाय है, जीवन हरिऔध की गोपियाँ है।
जीवन भोग नहीं, नींद नही, स्वप्न नहीं, मंजिल नहीं जीवन शेक्स्पीयर की वह लाइन- ‘Life is a tale] told by an idiot’ नहीं बल्कि जीवन एक योग है, यथार्थ है, यात्रा है, अभ्यास है, कुछ नया करने का नाम है और जीवन जीने की एक कला है।
इन सभी लोगों ने (राम, भरत, एकलव्य, कबीर, डाॅ. कलाम, मैना, सुनयना, सावित्री, पन्नाधाय, हरिऔध की गोपियाँ ) अपने जीवन में कुछ अच्छा, सुंदर करने का प्रयास किया, अपने कर्तव्यों को निभाकर अपने सुखों को त्यागकर दूसरों को सुखमय बनाने का प्रयास किया, केवल व केवल दूसरों को देने का प्रयास किया। ऐसा करके सदा-सदा के लिए अजर-अमर हो गए।
ये सभी अपने-अपने समय के कलाकार थे। कलाकार केवल वे नहीं होते जो रंग, ब्रश, पेंट, कागज तक सीमित रहते हैं। कलाकार तो वे भी होते हैं जो साहित्यकार होते हैं। उनके साथ थोड़ी सी कठिनाई यह होती है कि वे समाज के कुछ ही वर्गाे तक सीमित हो जाते हैं। समाज का अधिकांश वर्ग तो इनसे अनछुआ व अछूता रह जाता है। शायद इसी कमी को पूरा करने के लिए ये ललित-कलाओं का जन्म हुआ ताकि इस धरा का हर मानव पिण्ड शिक्षित- अशिक्षित, योगी-भोगी, उदार-संकीर्ण, बच्चे- बुजुर्ग सभी के जीवन में कुछ सौंदर्य, कुछ लालिमा, कुछ उल्लास, कुछ आनन्द, कुछ मिठास, कुछ मकरंद आ जाए।
एक ज्योतिहीन, दृष्टिहीन, गुलाब के सौंदर्य का, मयूर के विविध रंगों के मिश्रण के अनुपात का सही-सही आकलन तो नहीं कर सकता है, परन्तु वह कोयल के कलरव, झरने के कल-कल, सागर के तरंग-उमंग का श्रवण कर अपने जीवन को आलोकमय व आनंदमय बना सकता है।
इसके ठीक विपरीत एक कर्णहीन, बधिर प्रकृति के कलरव व कलकंठ का आनंदलाभ तो नहीं ले सकता परन्तु इंद्रधनुष के सातों रंगों की खूबसूरती का नयन सुख लेकर अपने जीवन को मधुरमय बना सकता है। अर्थात् हमारे आस-पास चारों तरफ फैली प्रकृति हम सभी मानव को खुशियाँ देने के लिए अनंत काल से दृढ़प्रतिज्ञ है लेकिन बहुत ही अफसोस की बात है, लज्जा की बात है कि यह नमकहराम, स्वार्थी, लोभी, कुविचारों, कुसंस्कारों से जकड़ा मानव अपने जीवन श्रोत, आनंद श्रोत को ही कुल्हाड़ी मार रहा है, साथ ही में उससे बहुत दूर भाग रहा है। तभी तो उस Cambridge Scholar William Wordsworth को बड़े ही दुःख के साथ लिखना पड़ा कि- “Getting and Spending We lay waste our powers Little we see in Nature that is ours”
प्रकृति की गोद व आंचल को ठोकर मारने का प्रमुख कारण शिक्षा का अभाव नहीं बल्कि सौन्दर्यबोध का अभाव है। अगर आज के मानव को उसके बचपन में ही सौन्दर्यबोध का ज्ञान करा दिया गया होता तो शायद आज वह इतना स्वार्थी, कुसंस्कारित, कुविचारक नहीं होता। किसी दार्शनिक ने कहा है कि- ‘‘यदि अपने बच्चे को सुन्दर बनाना चाहते हैं तो उसके सामने सदैव सुन्दर वस्तुएँ प्रस्तुत कीजिए।’’ बिल्कुल सत्य कहा है उस दार्शनिक ने- हम अंजलिबद्ध होकर शत्-शत् नमन करते हैं उनको।
सुन्दर वस्तुएँ, सुन्दर आचरण, सुन्दर विचार, सुन्दर कार्य से ही हम अबोध मस्तिष्क को सौन्दर्यबोध करा सकते हैं और जिस दिन हमने इसे कार्यरूप दे दिया तो तनिक भी संशय नहीं है कि वही बालक एक दिन “Child is the fathers of man” बनेगा।
एक नितान्त गरीब सुदामा भी सौन्दर्य बोध के कारण अपनी झोपड़ी के दीवारों को गौ माता के गोबर का लेप लगाकर सुन्दर बना सकता है। अपनी फटी-सी धोती को नदी, तालाब के जल में धोकर साफ-स्वच्छ रख सकता है मगर एक Silver spoon man सौन्दर्य बोध के अभाव में अपने ही महँगे, कीमती, चमकीले कमीजों को गन्दा करके इधर-उधर कमरे में, सोफे पर, कुर्सियों पर, दीवारों के खूटियों पर रख देता है। सौन्दर्य बोध के अभाव के कारण ही जिन अंगुलियों के बीच में कलम होनी चाहिए, ब्रश होने चाहिए उन अंगुलियों के बीच में ब्रांडेड सिगरेट आ जाते हैं।