कंधे पर बैग
रचयिता: महेश गुप्ता जौनपुरी
दिन रात एक करके परिवार को पालता हूँ,
रोटी के निवाले को मैं बांट-बांट कर खाता हूँ।
कम आमदनी में भी मैं सपने बड़े देखता हूँ,
मैं कंधे पर बैग नहीं जिम्मेदारीयों को ढ़ोता हूँ।
कभी पैदल कभी दौड़ कर कार्यालय जाता हूँ,
कभी भूखें कभी पसीने से लथपथ नजर आता हूँ।
हर रोज बस ट्रेन ट्रैफिक के धक्के खाकर आता हूँ,
मैं कंधे पर बैग नहीं जिम्मेदारीयों को ढ़ोता हूँ।
महंगाई की मार से हर रोज फटकारा जाता हूँ,
परिवार की मोह-माया में फिर भी मुस्कुराता हूँ।
थक हार कर हर रोज मुस्कुराता घर को आता हूँ,
मैं कंधे पर बैग नहीं जिम्मेदारीयों को ढ़ोता हूँ।
गर्मी सर्दी बारिश में जी जान से काम करता हूँ,
अपने योग्यता से कम मैं मुश्किल से कमा पाता हूँ।
माँ बाबा के सपनों को उड़ान देने में लगा रहता हूँ,
मैं कंधे पर बैग नहीं जिम्मेदारीयों को ढ़ोता हूँ।