बदलता अपना गाँव
रचयिता: सुनील कुमार सुनहरा, गया, बिहार
चले हैं हम इन शहरों से अपने बचपन के गाँव,
जहाँ गुज़रा था अपना बचपना घूमते नंगें पाँव।
इन गाँवों में पहले जैसा चहल पहल दिखाई नहीं देती,
अब हर घरों में पहले जैसा हल बैल दिखाई नहीं देती।
अब हर सुबह में पक्षियों का चहचहाहट सुनाई नहीं देती,
अब शाम में पशुओं की आने की आहट सुनाई नहीं देती।
अब इन पशुओं के गले में घंटे की आवाज सुनाई नहीं देती,
अब इन चारवाहों के डंडे में वो अंदाज़ दिखाई नहीं देती।
अब इन चरवाहा स्थल भी फसलों की खेत बन गया है,
सभी बड़े खेतों में भी कई छोटे-छोटे मेढ़ बन गया है।
अब हर पगडंडियों पर पक्की गलियाँ बन गई है,
अब हर गलियों के तीरे पक्की नालियाँ बन गई है।
अब इन गलियों में चलने पर धुप से अपना पाँव जलता है,
अब इन गलियों में उन पेड़ों की छाँव की कमी खलता है।
भैया घर के दरवाजा पे अब कुआँ दिखाई नहीं देता है,
इन घर के छप्परों से धुआँ उठता दिखाई नहीं देता है।
अब उन कुआँ के जगहों पर चापाकल बैठाईं जा रही हैं,
अब हर घर में खाना गैस-चुल्हा पर पकाई जा रही है।
अपने गाँव को देख खुद में चकित पड़ा है सुनील सुनहरा,
अब हर बंजर भूमि में उदित पड़ा है कई फसल हरा-भरा।