माँ भारती का अमर सपूत राम प्रसाद बिस्मिल
लेखिका: प्रतिमा उमराव, फतेहपुर, उत्तर प्रदेश
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।।
भारत को आजाद कराने के लिए जिन महान क्रांतिकारियों, स्वतन्त्रता सेनानियों ने अपने प्राणों को देश के लिए हंसते-हंसते न्योछावर कर दिया उनमें से एक है राम प्रसाद बिस्मिल। इन पंक्तियों को गाते हुए स्वयं बिस्मिल भारत को स्वाधीन कराने के लिए फांसी के तख्ते पर झूल गए। मां भारती का यह लाल आज भी अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से अमर है।
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के महानायक राम प्रसाद बिस्मिल एक महान क्रान्तिकारी ही नहीं बल्कि एक परम उच्च कोटि के लेखक, कवि, शायर, अनुवादक और साहित्यकार भी थे। भारत को आजादी दिलाने में बिस्मिल जी ने अपनी तूलिका से नव युवकों के बीच में जोश, उमंग और क्रान्ति की अलख जगायी।ओजस्वी व्यक्तित्व, बलिष्ठ शरीर एवं दृढ़ इच्छाशक्ति के धनी स्वाधीनता संग्राम के वीर पुरोधा राम प्रसाद बिस्मिल का जीवन संघर्षमय रहा। राम प्रसाद बिस्मिल को काकोरी कांड में दोषी पाए जाने पर मात्र 30 वर्ष की अल्पायु में ही अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।
भारत माता स्वयं धन्य हो गई जब बिस्मिल जैसे पुत्र का जन्म 11 जून 1897 को एकादशी तिथि में पिता मुरलीधर एवं माता मूलमती के घर एक तेजस्वी महान सपूत ने जन्म लिया। बिस्मिल जी की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्राप्त हुई थी। माता तो पढ़ी-लिखी नहीं थी किंतु उन्होंने स्वयं की रुचि से अपने पड़ोस की सहेलियों से हिन्दी सीखना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार अपनी मां के दृढ़ इच्छाशक्ति को देखकर बिस्मिल के ऊपर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा। मां के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए ईश्वर के रूप में माना। बिस्मिल जब नौवीं कक्षा में पहुंचे प्रवेश किया उसी समय लखनऊ में अखिल भारतीय कांग्रेस सम्मेलन आयोजित हुआ। जिसमें बिस्मिल ने प्रतिभाग किया और वहीं पर अनेक क्रांतिकारियों से उनका परिचय भी हुआ। इसी समय आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित महान ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन किया, जिससे बिस्मिल के जीवन की दशा और दिशा बदल गई। वह मात्र 18 वर्ष की अल्पायु में ही स्वतंत्रता संग्राम के समर में कूद गए।
पंडित रामप्रसाद का वास्तविक नाम रामप्रसाद सिंह तोमर था। वह मूलत तत्कालीन ग्वालियर स्टेट में चंबल के रूअर-बरवाई गांव के निवासी थे। अकाल के दौरान उनके पिता गरीबी और पारिवारिक कलह की वजह से उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर आ गए और छत्रिय होते हुए भी पांडित्य कर्म से जीवन यापन करने लगे।
अंग्रेजी शासन के बंधन में जकड़ी हुई भारत माता कराह रही थी, जिसे मुक्त कराने के लिए हर भारतीय युवक के मन में अंग्रेजी अत्याचार के विरुद्ध चिंगारी सुलग रही थी। भारत माता की वन्दना करते हुए बिस्मिल ने लिखा-
‘हे मातृभूमि! तेरी जय हो सदा विजय हो।
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख शांति कांतिमय हो।।’
सशस्त्र क्रांतिकारी आन्दोलन को धार देने के लिए पर्याप्त हथियार और धन की आवश्यकता आन पड़ी। सभी महान क्रांतिकारियों ने आपस में राम प्रसाद बिस्मिल के साथ विचार-विमर्श किया। तभी सरकारी खजाना लूटने का फैसला किया गया। तय यह हुआ कि सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली गाड़ी के द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में कुछ जवान थे। राम प्रसाद बिस्मिल एवं उनके साथियों ने मिलकर उस गाड़ी को रोक लिया जिसमें सरकारी खजाना लदा था सभी क्रांतिकारियों ने यात्रियों को आश्वस्त किया कि वह सिर्फ सरकारी खजाना लूटने के लिए गाड़ी को रोकी है। यह घटना सन 1925 में काकोरी नामक स्थान पर घटित हुई। इसलिए इस घटना का नाम काकोरी कांड रखा गया। काकोरी कांड से अंग्रेजों के बीच में एक डर का माहौल पैदा हो गया। तभी अंग्रेजों ने उन क्रांतिकारियों को पकड़ने का काम शुरू कर दिया। लगभग काकोरी कांड से संबंधित 22 लोगों पर अंग्रेजी शासन ने मुकदमा चलाया और उनको बहुत ही कठोर काले पानी, कठोर कारावास की सजा सुनाई। इस घटना में राम प्रसाद बिस्मिल अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी तथा ठाकुर रोशन सिंह को भी फांसी की सजा सुनाई गई। राम प्रसाद बिस्मिल इस फांसी से कतई भी विचलित नहीं हुए और उन्होंने अपने भावों को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया-
‘देश की खातिर मेरी दुनिया में यह ताबीर हो।
हाथ में हथकड़ी पैरों में पड़ी जंजीर हो।।’
राम प्रसाद बिस्मिल अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए उत्तर प्रदेश के जिला मैनपुरी में सन 1915-16 में एक क्रांतिकारी संस्था ‘मातृदेवी संस्था’ की स्थापना की। इस कार्य में पंडित गेंदालाल दीक्षित का सहयोग लिया।
जनवरी 1918 में ष्देशवासियों के नाम एक प्रपत्रष् छपवा कर एवं ष्मैनपुरी की प्रतिज्ञाष् के नाम से प्रपत्र छपवा कर देशवासियों के बीच में प्रचार-प्रसार करने लगे। अंग्रेजी पुलिस ने राम प्रसाद बिस्मिल और उनके सहयोगी सदस्यों को प्रतिबंधित साहित्य बेचने के लिए छापा डाला। जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल जी फरार हो गए और यमुना नदी में छलांग लगाकर तैर कर ग्रेटर नोएडा के बीहड़ जंगलों में पहुंच गए। जहां पर बबूल पेड़ के अलावा दूर-दूर तक इंसान नहीं मिलते थे। मैनपुरी षडयंत्र के नाम से अंग्रेजी शासन ने राम प्रसाद बिस्मिल के खिलाफ मुकदमा सुनाया।
राम प्रसाद बिस्मिल सितंबर 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सम्मिलित हुए जहां पर इनकी मुलाकात लाला लाजपत राय से हुई। राम प्रसाद बिस्मिल क्रांतिकारी होने के साथ-साथ एक लेखक, प्रकाशक भी थे। उन्होंने अपनी पहली पुस्तक ‘अमेरिका को स्वतंत्रता कैसे मिली’ प्रकाशित कराया। इसके अलावा ‘देशवासियों के नाम संदेश, मन की लहर, कैथराइन, स्वदेशी रंग‘ आदि रचनाओं का प्रकाशन भी किया।
पंडित राम प्रसाद बिस्मिल महान क्रांतिकारी को गोरखपुर जेल में 19 दिसंबर के लिए जब फांसी की सजा सुनाई गई तो उन्होंने फांसी के एक दिन पहले शाम को दूध पीने से इंकार कर दिया और कहा कि मैं अब तो भारत माता का दूध पिऊंगा। उन्होंने अपनी मां के प्रति एक असीम प्रेम, श्रद्धा भाव को दर्शाते हुए एक पत्र लिखा जिसमें देशवासियों के नाम संदेश भी लिखा कि- ‘मां मेरी एक तृष्णा है कि एक बार श्रद्धा पूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। मां मुझे विश्वास है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता भारत माता की सेवा में अपने जीवन को बलिवेदी की भेंट चढ़ाने जा रहा है और उसने तुम्हारी कुक्षि को कलंकित न किया और अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा।’
गोरखपुर की जेल में रहते हुए राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा 16 दिसंबर को पूरी करके उसे जेल के बाहर भेज दिया था।
फांसी के एक दिन पहले 18 दिसंबर की शाम को माता-पिता से जेल में आखरी मुलाकात करने पर बिस्मिल जी की आंखों में आंसू आ गए। उनकी आंखों में आंसू देख कर मां ने कहा, ‘यह क्या? क्या तुम्हारा इंकलाब खत्म हो गया, मेरे बेटे से अंग्रेज सरकार कांपती थी, इसलिए मैं गर्व से सिर उठाकर चलती थी पर फांसी की सजा सुनकर तुम बच्चों की तरह रो रहे हो।…’
‘मां तुम जानती हो मैं कायर नहीं। मैं मृत्यु से नहीं डरता मेरी आंखों में आंसू तो इसलिए है कि तुम जैसी मां फिर कहां पाऊंगा।’ बिस्मिल ने अपनी मां के प्रति असीम, अगाध श्रद्धा व्यक्त करते हुए शब्द रूपी पुष्पों को अर्पित किया। निडर, साहसी अंग्रेजी शासन के खिलाफ स्वयं को आहुति देते हुए वंदे मातरम, भारत माता की जय जय कार करते हुए फांसी के तख्ते की ओर जाते हुए मां भारती के इस लाल ने कहा-
‘मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूं न मेरी आरजू रहे।
जब तक तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्र ए यार तेरी जुस्तजू रहे।।’
इस प्रकार फांसी के फंदे के समीप खड़े होकर अपने देश के लिए समर्पित इस नवयुवक ने अपने देश के प्रति कुछ पंक्तियों को समर्पित करते हुए कहा- ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ।’
फिर महान शायर राम प्रसाद बिस्मिल ने कहा-
‘अब न अहले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत, अब दिले बिस्मिल में है।।’
कहते हुए मां भारती का जांबाज सैनिक दिन सोमवार 19 दिसंबर 1927 को पौष कृष्ण एकादशी के पवित्र दिन प्रातः कालीन बेला में 6:30 गोरखपुर जिले की जेल में फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते झूल गए। राप्ती नदी के किनारे सैकड़ों भारतीय भाई बहनों ने अपने अश्रुओं के साथ अंतिम संस्कार कर इस जहां से भौतिक रूप से विदाई दी। किंतु आज भी राम प्रसाद बिस्मिल हम सब भारत वासियों के दिलों में शान से जीवित है-
जब तक सूरज चांद रहेगा।
तब तक बिस्मिल तेरा नाम रहेगा।।
बाबा राघव दास ने बिस्मिल की पवित्र अस्थियों को संचित कर गोरखपुर के पास स्थित देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर ताम्रपात्र में उनकी अस्थियों का स्मृति-स्थल बनवाया।
19 दिसंबर 1997 को, भारत सरकार द्वारा राम प्रसाद बिस्मिल के जन्मदिवस की वर्षगांठ पर एक स्मरणीय डाक टिकट भी जारी किया गया था।
भारत सरकार द्वारा राम प्रसाद बिस्मिल की याद में उत्तर रेलवे में ‘पंडित राम प्रसाद बिस्मिल रेलवे स्टेशन’ को स्थापित किया गया।
महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल सदैव हिंदू मुस्लिम एकता पर बल देते थे। उन्होंने अशफ़ाकउल्ला खां के साथ जो उनके परम मित्र थे। आजादी की लड़ाई लड़ी और मिलकर क्रान्तिकारी आन्दोलन की ज्योति जलायी। क्रांतिकारी रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी क्रांतिकारियों के साथ मिलकर वतन को आजाद कराने के लिए कार्य करते थे। आज भी रामप्रसाद बिस्मिल देशभक्त युवाओं का आदर्श है।अपने वतन पर मर मिटने के लिए प्रेरणा मिलती है।