मेरी दृष्टि में ‘प्रेमचंद घर में’- प्रांशु बरनवाल
समीक्षक- प्रांशु बरनवाल, देवरिया उत्तर प्रदेश
प्रेमचंद जी को अब तक हम लेखकीय रूप में जानते थे, उनके साहित्य को पढ़कर ही उनके आदर्शवादी और यथार्थवादी होने का भी अन्दाजा लगाते हैं। किसी भी लेखक/कवि के व्यक्तिगत जीवन को जानना हो तो उसकी आत्मकथा या जीवनी से होकर गुजरना पड़ता है। ‘प्रेमचंद घर में’ में उनके घरेलू जीवन का ही वर्णन है।
प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने भी अपने इस किताब ‘प्रेमचंद घर में’ में उनके व्यक्तिगत और उनके दैनिक जीवन के क्रियाकलापों को दर्शाया है। प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन के अलावा प्रेमचंद के घरेलू जीवन को जानने के लिए भी यह पुस्तक जरूरी जान पड़ती है। शिवरानी देवी इस किताब के दो शब्द में लिखती हैं कि, ‘मैंने तो सारी बातें, बगैर अपनी तरफ से कुछ भी मिलाए, ज्यों-की-त्यों कह दी है।’ वास्तव में ऐसा लगता है कि शिवरानी देवी ने उनके व्यक्तिगत जीवन को जिस तरह से उद्धरित किया है वो इस किताब में देखने लायक है। और साथ ही प्रेमचंद और शिवरानी देवी के घरेलू सबन्धों को भी देखने की जरूरत है कि किस तरह से अपने साहित्य में व्यक्तिगत जीवन को रचतें बसतें है।
शिवरानी देवी और प्रेमचंद के बीच हमेशा से ऐसे सबन्ध को निभाना था जिसमें वो साथ रहकर भी अलग न महसूस करें। पूरी किताब पढ़ने के बाद लगा कि प्रेमचंद और शिवरानी देवी कभी एक दूसरे को अकेले नही होने दिये। जीवन के सुख-दुःख में दोनों ने एक-दूसरे का शिद्दत से साथ निभाया है, शिवरानी देवी आगे लिखती हैं कि-‘हमने साथ-साथ ही जिंदगी के सब तूफानों को झेला था, दुःख में और सुख में, मैं हमेशा उनके साथ, उनके बगल में थी। आदमी की पहचान तकलीफ के भँवर में पड़कर ही होती है।’ वास्तव में प्रेमचंद समाज की सच्चाई को बड़े ही करीब से देखे थे, जहां जैसे और जिस तरह से लगा उन्होंने शिवरानी देवी का साथ नही छोड़ा। हर परिस्थिति में वे एक दूसरे के साथ खड़े रहें। शिवरानी देवी जब कभी बीमार पड़ती तो घरेलू काम प्रेमचंद अपने सर ले लेते थे, यहां तक कि प्रेमचंद अपना व्यक्तिगत काम जैसे अपने कमरे की सफाई करना, जूते साफ करना ये सब उन्हें शिवरानी देवी से करवाना पसंद नही था। वह अपना काम स्वयं करना जानते थे।
शिवरानी देवी इस पुस्तक में सभी बातों को उद्धरित करते हुए कहती है कि, ‘ये बातें मेरी आँखों के सामने हुई हैं। वे बातें उनकी है। वे पाठकों के थे, इसलिये मैं इन्हें पाठकों को भेंट कर रही हूं। मैं खुद भी अपनी नही हूँ।’
तो आइये अब हम प्रेमचंद को उनकी पत्नी शिवरानी देवी के नजर में देखते है कि उनका व्यवहारिक जीवन किस तरह का था-
उन दिनों शिवरानी देवी ने भी प्रेमचंद से प्रभावित होकर कहानियां लिखनी शुरू कर दिया था। उनकी पहली कहानी ‘साहस’ चांद पत्रिका में छपी थी। उस दौरान प्रेमचंद पर बराबर लोगों के आरोप लगते रहें कि शिवरानी देवी की कहानी प्रेमचंद ही लिखते थे। प्रेमचंद ने बाकायदा इसका खंडन भी किया है। शिवरानी देवी लिखती हैं कि, ‘शादी के पहले मेरी रुचि साहित्य में बिल्कुल नहीं थी। उसके बारे में मैं कुछ जानती भी नहीं थी। मैं पढ़ी भी नहीं के बराबर थी। आज मैं जिस लायक हूँ, वह पति के द्वारा ही।’ वह लिखती हैं कि,‘मेरे लिए यह बड़े गर्व की बात है कि वे मेरे थे और मैं उनकी हूँ।’
सच्चे मायनो में प्रेमचंद के जीवन में शिवरानी देवी का उतना ही महत्व था जितना कि शिवरानी देवी के जीवन में प्रेमचंद का। शिवरानी देवी उनके लेखन कार्य में कभी बाधा नही आने देती थी, उन्हें घरेलू कामों से मुक्त रखती थी और कभी-कभी तो बड़े से बड़े काम भी अपने माथे जड़ लेती थी, ताकि प्रेमचंद की लेखनी न रुके। प्रेमचंद कहते भी हैं कि, ‘हम दोनो एक ही नाव के सहयात्री हैं।’ यह त्याग, समर्पण, निष्ठा, प्रेम ही आज प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाया है।
‘प्रेमचंद घर में’ पढ़ते हुए लगा कि प्रेमचंद सीधे हैं, उदारवादी हैं तो शिवरानी देवी उदंड हैं व परिस्थितियों के अनुकूल उनकी उदारता है। एक जगह प्रेमचन्द कहते हैं कि ‘तुम बहुत उदण्ड हो।’ और शिवरानी के तेवर देखने से लगता है कि एक ओर वो उदारतापूर्वक परिवार को सुचारू रूप से चलाने की काबिलियत रखती हैं तो दूसरी ओर अपने हक और अधिकार के लिये किसी भी हद तक लड़ने पर उतारू हो जाती हैं। प्रेमचंद और उनके बीच, उनकी नोक-झोंक के क्या ही कहने। ऐसी मीठी नोक-झोंक चलती रहनी चाहिए और सबसे बड़ी बात है कि इन नोक-झोंक में अहम की भावना नही है, प्रेम है, अपनत्व है। एक दूसरे का आदर है। प्रेमचंद का शिवरानी के पास रहना पूरी दुनिया के पास रहना था। इसलिए उन्हें मायके तक नही जाने देते थे। यदि वो चली भी जाती थी तो उनके साथ प्रेमचंद भी जाते थे। वे कहते थे कि, शिवरानी के बिना मुझे किसी काम में जल्दी मन भी नही लगता था। शिवरानी से इसी लगाव के कारण वो अपने दोस्तों में ‘घरघुसू’ कहलाते थें।
प्रेमचंद स्वभाव से स्वाभिमानी थे। उन्हें महलों के अपेक्षा झोपड़ी में रहना पसंद था। उन दिनों अलवर रियासत के राजा, प्रेमचंद के उपन्यासों से काफी प्रभावित थें, उन्होंने महल में रहने को आमंत्रित किया, किंतु प्रेमचंद ने यह कहते हुए मना कर दिया कि, ‘मैने अपना जीवन साहित्य-सेवा के लिए लगा दिया है। मैं जो कुछ लिखता हूँ, उसे आप पढ़ते हैं, इसके लिए धन्यवाद देता हूँ। आप जो पद मुझे दे रहें हैं, मैं उसके योग्य नहीं हूँ।’ प्रेमचंद का साहित्य के प्रति समर्पण देखने योग्य है।
प्रेमचंद सहज प्रतिभा के धनी थे। वह जितने ही सीधे थे, उतने ही उदारवादी थे। शिवरानी देवी लिखती है कि उन्हें मैंने कभी क्रोधित होते नही देखा था। वह यह भी लिखती हैं कि वे जीवन में बस दो ही बार क्रोधित हुए। प्रेमचन्द, शिवरानी देवी से अपने जीवन की कोई भी बात नही छिपाते थे और अपने जीवन के सारे सच्चाई को आईने की तरह अपनी पत्नी के सामने रख देते थे। प्रेमचंद, शिवरानी देवी से कहते हैं कि, ‘मैंने अपनी पहली स्त्री के जीवन-काल में ही एक और स्त्री रख छोड़ी थी। तुम्हारे आने पर भी मेरा उससे सम्बन्ध था।’ इस तरह प्रेमचंद के इस रूप में को भी देखने की जरूरत है।
प्रेमचंद पाखण्ड और अंधविश्वास जैसी चीजों को नहीं मानते थे, उनका मानना था कि यह सब व्यक्ति को हर तरह से कमजोर बनाता है वह लिखते हैं कि, ‘भगवान मन का भूत है, जो इंसान को कमजोर कर देता है। स्वावलंबी मनुष्य ही की दुनिया है। अंधविश्वास में पड़ने से तो रही-सही अक्ल भी मारी जाती है।’ प्रेमचंद की दृष्टि सामाजिक समस्या के साथ साथ देश-विदेश की समस्याओं पर भी नजर थी। वह धर्म को समन्वयवादी रूप से देखते हैं। उनका कहना था कि, ‘मेरे लिए राम, रहीम, बुद्ध, ईसा सभी श्रद्धा के पात्र हैं।’ और इन सभी धर्मों से ऊपर उन्होंने इंसानियत को धर्म माना। ऐसे समन्वयवादी थे प्रेमचंद।
प्रेमचंद के दिल में स्त्रियों के लिए भी श्रद्धा थी। वह स्त्रियों को पुरूष के अपेक्षाकृत सशक्त और बड़ा मानते थे। प्रेमचंद स्त्री मुक्ति के साथ-साथ उन्हें स्वावलंबी तथा आत्मनिर्भर रहने की बात करते हैं।
प्रेमचंद के लिए उनकी हंस पत्रिका उनके प्राणों से भी प्यारी थी। वह कहते थे कि मैं रहूँ या ना रहूँ, पर हंस पत्रिका चलती रहनी चाहिये।
शिवरानी देवी से प्रेमचंद की बातें लगभग हर मसलें पर होती रहती थी। जितना प्रेमचंद अपने साहित्य में रचते बसतें थे उतना ही वह सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक आदि विभिन्न पहलुओं पर बारीक दृष्टि भी रखते थे और साथ ही शिवरानी से उन सभी मुद्दों पर बातचीत भी करते थे। उन्होंने साहित्य, समाज और राजनीति तीनों को एक ही माला में पिरोने की बात कही है, वह कहते हैं कि, ‘जिस भाषा का साहित्य अच्छा होगा, उसका समाज भी अच्छा होगा। समाज के अच्छा होने पर मजबूरन राजनीति भी अच्छी होगी। ये तीनो साथ-साथ चलनेवाली चीजें हैं।’
प्रेमचंद जिस प्रकार अपने साहित्य में आदर्शवाद को स्थापित करते हैं वह इन्ही विचारों की देन है, वह समाज को एक अच्छा साहित्य देना चाहते थे और साथ ही समाज को सुसंगठित रूप से देखने के हिमायती थे और आगे प्रेमचंद कहते भी हैं कि जिस दिन मैं कुछ लिखता पढ़ता नही, मैं समझता हूं, मेरे जीवन का वह एक दिन व्यर्थ गया। मैं एक लेखक नही एक मजदूर हूँ और जिस दिन कुछ न लिखूं उस दिन मुझे खाने का अधिकार नही। प्रेमचंद जितना परिवार के प्रति समर्पित रहते थे उतना ही साहित्य के प्रति भी। वो समानता देना जानते थे और जो लिखते थे वही जीते भी थे। यह साहित्य के प्रति समपर्ण ही है जिन्होंने हिंदी जगत को एक विपुल साहित्य दिया। प्रेमचंद का मानना था कि, ‘जो लोग इस साहित्य को हरा-भरा करेंगे, वे जैसे हमारी सेवा ही कर रहें है।’ अतः ये कहना होगा कि शिवरानी देवी ने यह किताब लिखकर सच्चे अर्थों में प्रेमचंद की सेवा की हैं।