वासना – प्रिंशु लोकेश
कहानीकार: प्रिंशु लोकेश, रीवा, मध्य प्रदेश
तीसरी दर्जे़ में पढ़ रहा बच्चा वासना के गिरफ़्त में कब आ जाता है मालूम नहीं। वो अक्सर कुछ उन दिनों की धुंधली सी यादों में से मोनू और नेहा का जिक्र करता है। हालांकि मोनू और नेहा ना तो पति-पत्नी हैं और ना ही प्रेमी-प्रेमिका ये दोनों किसी दूर के रिश्ते से चाचा-भतीजी हैं और ना ही इनमें कोई ऐसा- वैसा संबंध रहा किन्तु उसकी धुंधली सी यादों से साफ़ ज़ाहिर होता है कि वासना का पहला बीज उसकी चेतना की तह में जाकर इन्हीं दोनों में से किसी एक ने बोया और दूसरे ने उसे पाल पोस कर एक भयंकर झाड़ का रूप दिया।
परीक्षित आज लगभग 22-23 वर्ष का हो चुका है किन्तु उसकी वासना भी कम नहीं वो भी लगभग 18 वर्ष की चिर यौवन को प्राप्त कर चुकी है। ये अलग बात है कि अभी दोनों अविवाहित हैं, बेरोजगार हैं, असफल हैं किन्तु ऐसा नहीं है कि विकासशील नहीं हैं। दोनों 24×7 घंटे लगातार अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए ताबड़तोड़ मेहनत करते हैं। समस्या बस इतनी सी सामने आ जाती है कि दोनों का रास्ता बिल्कुल अलग है किन्तु मित्रता एकदम गहरी…
परीक्षित आजकल किसी बात से अपनी मित्र वासना से नाराज़ सा लग रहा शायद वो उसे रोक लेती है उसकी मंजिल की ओर जाने से… वो बैठे-बैठे उसे कोस रहा है कि कहां है इस मित्रता की जड़? कौन है मुझे तुमसे मिलवाने वाला और क्या जरूरत थी जो मिलवाया गया? तभी अचानक उसे बचपन की वो धुंधली सी यादें पुनः सामने आ जाती है और वो गुस्से से लाल हो कर अपने बाल नोचते हुए सिगरेट की दो कस लेकर लेट जाता है।
उधर वासना भी बिस्तर के दूसरे छोर पर बैठी परीक्षित से नाराज़ सी लग रही है उसका भी यही कहना है कि जैसे ही मैं अपनी मंजिल के करीब तक आ जाती हूं तभी तुम मेरी आंखों में सिद्धांतों की पट्टी बांध कर रोक लेते हो। कितनी बार मंजिलें नहीं आईं मेरे सामने और हर बार तुम्हारे सिद्धांतों ने मुझे मेरी मंजिल तक जाने से रोका। आज तुम्हें एक छोटी सी असफलता क्या मिली उसका सारा दोष तुम मुझ पर लाद दिए, हर परिस्थिति में साथ रहने वाली ये वासना आज तुम्हारे लिए कुंठित वासना हो गई।
न रोकें होते मुझे आज से 16 वर्ष पहले जब मुझे मेरी पहली मंजिल सुमोना दीख पड़ी थी। नहीं तब तो सिद्धांतवादी बनना था अध्यापिका की बेटी है ऐसा है वैसा है। मैंने तो तुम्हें कभी नहीं रोका तुम्हारी पहली, दूसरी, तीसरी…..पल-पल बदलती हुई मंजिल तक जाने से। मैं तो तुम्हारे साथ ही रही । जब तुम्हारी पहली मंजिल तुम्हें इक रोडियो के रूप में मिली और तुमने उसे तोड़कर अपनी दूसरी मंजिल तक गए से उसके स्पीकर में लगे चुम्बक के सहारे। तब तो मैंने नहीं रोका तुम्हें बल्कि मैं भी तुम्हारे साथ दौड़ती हुई, खेलती हुई, खिलखिलाती हुई तुम्हारा साथ दी और आज तुम एक असफलता, जिसकी वजह भी मैं नहीं हूं उसकी वजह से नाराज़ हो।
याद करो जरा जब मुझे एक और मंजिल मिली थी, मिली क्या थी पुकार रही थी। तब क्या कहा था तुमने? अरे यार ये तो मौसी है। जबकि वो एक दूर के रिश्ते की थी। कहां-कहां नहीं रोका तुमने मुझे स्कूल में, कॉलेज में, आटो में , ट्रेन में, बुआ के यहां, मौसी के यहां, मामा के यहां, गांव में, सड़क पर, कितनी जगह बताऊं।
इतना कह कर वासना ज़ोर- ज़ोर से चीखने लगती है। परीक्षित उसे शांत कराने का प्रयास करता है किन्तु वासना किसी एक ऐसे गरीब लुहार की भट्टी में तपे लोहे जैसी हो चुकी है जिसके कठौते में पानी की जगह आग ही आग हो।
पसीने से लथपथ परीक्षित खिन्न होकर वासना से को कहता है, तो क्यूं आयी मेरे पास ? क्यूं बढ़ाया था मित्रता हाथ?
तपे हुए लोहे जैसी वासना, क्यूं आए मेरे संपर्क में क्यूं चले जाते थे नेहा की एक पुकार में उसके साथ खेलने? जबकि वो तुमसे 10 साल बड़ी थी और चले जाते थे तो कोई ढंग का खेल-खेलते। क्यूं लगे रहते थे उसकी छाती से?
परीक्षित (पसीने को उंगली से पोंछते हुए), तब मैं बहुत छोटा था कोई चार-पांच वर्ष मेरी उम्र थी। मुझे नहीं मालूम था कि उसकी छाती पर ही तुम्हारा माकान है।
वासना, कुछ छोटे-वोटे नहीं थे, क्योंकि नयी मिट्टी वासना में पौधा उगाया ही नहीं जा सकता झूठे। और हां! ये बताओ रोज़ सुबह उठकर मोनू के पास क्यूं जाते थे? वो तो और भी तुमसे बड़ा था तकरीबन 15-16 साल।
परीक्षित, तब भी तो मैं छोटा ही था एकदम अबोध। घर में सिखाया गया था की सुबह -सुबह उठ कर सभी बड़ों का पैर छूना है। तो क्या करता? जाना पड़ता था।
वासना की चीख अब हंसी में बदल गई, अच्छा! मतलब नयी मिट्टी में संस्कार भी थे? अरे मूर्ख! तो मम्मी -पापा से नहीं बता सकते थे की मोनू मेरे से गलत करवाता है?
परीक्षित, शर्मता था, और डरता भी था कहीं उन्हें पता चल गया तो मार ना खा जाऊं।
वासना, तो अब तुम्हीं बताओ नयी मिट्टी के पुराने घड़े, मित्रता की शुरुआत किसकी की मैंने या तुम्हारी शर्म और तुम्हारे डर ने… परीक्षित यदि आज तुम मुझसे दूर जाना चाहते हो तो मैं तुम्हें नहीं रोकूंगी किन्तु याद रखना बिना वासना के एक कदम भी नहीं चल पाओगे यहां।
हां यदि जाना ही चाह रहे हो तो पुरानी मित्र होने की हैसियत से एक इल्तिज़ा जरूर करूंगी।
परीक्षित, करो।
वासना, काश एक बार इज़ाजत दे देते मुझे मेरी मंजिल तक जाने की तो…
परीक्षित, तो क्या?
वासना, तो इसे कोई कुंठित वासना न कहता।
इतना सुनते ही परीक्षित आवाक सा सुस्त पड़ा बिस्तर पर वासना का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींच लेता है।