शिक्षक दिवस विशेष – समाज निर्माण में शिक्षक की भूमिका
लेख: हरी राम यादव
गुरु शब्द अपने आप में एक विशालता समेटे हुए है। गुरु शब्द का उच्चारण होते ही मन में एक आदर का भाव उत्पन्न हो जाता है। मन में उत्पन्न हुआ यह आदर का भाव ही एक गुरु, शिक्षक और अध्यापक की गरिमा, महिमा तथा उसके योगदान को बताने के लिए काफी है। वह हर परिस्थिति में धैर्य, सदाचार, आचार, विचार, व्यवहार और जीवन को मनुष्यत्व प्रदान करने वाले ज्ञान का दाता हैं। शिक्षक शिष्य के मन में सीखने की इच्छा को जागृत करने वाले अपराजेय मनुष्य के रूप में ईश्वर की प्रतिकृति हैं। प्राचीन काल से लेकर कुछ दशकों पहले तक शिक्षक को गुरु कहा जाता था। शब्दार्थ की दृष्टि से भी गुरू शब्द का अर्थ बड़ा या श्रेष्ठ होता है। गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ दर्जा दिया गया है क्योंकि गुरु ही वह ज्ञान देता है जिसके माध्यम से एक शिष्य श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। संत कबीर दास जी ने गुरू की गुरूता का वर्णन करते हुए लिखा है-
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।
संत कबीरदास जी द्वारा लिखी गई उक्त पंक्तियाँ जीवन में गुरु के महत्त्व को वर्णित करने के लिए काफ़ी हैं। भारत में प्राचीन समय से ही गुरु व शिष्य की परंपरा चली आ रही है। जीवन में माता-पिता का स्थान तो कोई नहीं ले सकता जो कि एक बच्चे के सबसे बड़े गुरु होते हैं, विशेषकर मां। जब एक बच्चा पैदा होता है तब वह कुछ भी नहीं जानता है। न तो वह समाज जानता है और न ही रीति रिवाज या परम्पराओं को जानता है। वह कुछ भाव भंगिमाओं के द्वारा अपनी आवश्यकताओं को व्यक्त करने की कोशिश करता है। उसकी इन भाव भंगिमाओं को सिर्फ उसकी मां ही जानती है कि बच्चा क्या चाह रहा है। बच्चा दीपक की लौ को देखकर उसे पकड़ने की कोशिश करता है तब उसे उसकी मां ही उसे आग की ज्वलनशीलता के बारे में बताती है, समझाती है। तब वह बच्चा जान पाता है कि उसे नहीं छूना है। फिर वह कभी पकड़ने की कोशिश नहीं करता है। इस तरह एक माँ ही इस संसार में सबसे बड़ी शिक्षक होती है। हम अपनी माँ द्वारा दी गई बचपन की सीख को बुढ़ापे तक नहीं भूल पाते।
बच्चा जब बड़ा होता है और स्कूल जाना शुरू करता है। तब वह स्कूल में पढ़ाये जाने वाले विषयों को शिक्षक के मार्गदर्शन में सीखता है। इस उम्र में बालक गीली मिट्टी की तरह होता है उसे जिस सांचे में ढालना चाहो वह ढल जायेगा। स्कूल के समय में एक शिक्षक माता-पिता, भाई, बहन और मार्गदर्शक की भूमिका में होता है। शिक्षक की सीखों का प्रभाव अमिट होता है। एक बालक अपने शिक्षक की बातों को सौ फीसदी मानता है। अगर विश्वास न हो तो किसी पढ़ाए गये विषय के पाठ को आप दूसरी तरह समझा कर देख लीजिए। आप का बच्चा तपाक से कहेगा कि हमारे गुरु जी ने हमें इस तरह बताया था।
हम जिस समाज में रहते हैं उसके योग्य हमें केवल शिक्षक ही बनाते हैं। यद्यपि परिवार को बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा जाता है लेकिन जीवन जीने का असली तरीका शिक्षक ही सिखाता है। समाज के शिल्पकार कहे जाने वाले शिक्षकों का महत्त्व यहीं समाप्त नहीं होता, वह न सिर्फ़ विद्यार्थी को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं बल्कि उसके सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के हाथों द्वारा रखी जाती है।
गुर्रुब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मैः श्री गुरुवेः नमः।।
शिक्षक दिवस 05 सितंबर को डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस के अवसर पर उनकी स्मृति में मनाया जाता है। वह एक महान शिक्षक होने के साथ साथ स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति तथा दूसरे राष्ट्रपति थे। डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 05 सितंबर 1888 को तमिलनाडु के तिरुतनी गाँव में एक गरीब परिवार में हुआ था। आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद पढाई लिखाई में उनकी काफी रुचि थी। प्राथमिक शिक्षा तिरूवल्लुर के गौड़ी स्कूल और तिरूपति मिशन स्कूल में हुई थी। उन्होंने अपनी आगे की शिक्षा मद्रास क्रिश्चियन काॅलेज से पूरी की । 1916 में उन्होंने दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया और मद्रास रेजीडेंसी काॅलेज में दर्शन शास्त्र के सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। सन् 1903 में 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह सिवाकामु के साथ हो गया ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात डाॅ राधाकृष्णन को सोवियत संघ में राजदूत के रूप में नियुक्त किया गया। सन् 1952 तक वह इसी पद पर रहे और उसके बाद उन्हें देश का उपराष्ट्रपति नियुक्त किया गया। बाद में उन्हें देश का दूसरा राष्ट्रपति बनाया गया। 17 अप्रैल 1975 को लम्बी बीमारी के पश्चात उनका निधन हो गया। शिक्षा के क्षेत्र में डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का अतुलनीय योगदान रहा।
एक शिक्षक के रूप में हमारी यह जिम्मेदारी है कि हम बिना किसी भेदभाव के अपनी शिक्षा से डाक्टर, इंजीनियर और अधिकारी के साथ साथ इंसान का निर्माण करें जिसके अंदर करूणा, दया और इंसानियत की भावना हो। जो पद, पैसे और प्रतिष्ठा के चक्कर में मानवता का खून न करें। हमें इसी तरह उच्च गुणवत्ता के साथ समाज में शिक्षा की लौ को जलाए रखना होगा। साथ ही साथ अपने आचरण और व्यवहार से समाज में शिक्षक की गरिमा को बनाए रखना होगा।
पिछले कुछ दिनों में देश में कुछ ऐसी घटनाएं सामने आयी हैं जिन्होंने शिक्षा की गरिमा को तार तार किया है, जनमानस के मन में बसा शिक्षक का आचरण कलंकित हुआ है। ऐसे कुछ लोग जो जाति धर्म और ऊंच नीच की भावना से कुंठा ग्रस्त हैं उन्होंने गुरु शिष्य के पवित्र रिश्ते में दाग लगाया है। ऐसे लोग शिक्षक या गुरु के सम्बन्धों और अटूट विश्वास के द्रोही हैं। अपने ईश्वरत्व वाली छवि को कायम रखने के लिए शिक्षक समाज को आगे आना होगा। शिक्षक का कार्य एक नौकरी नहीं बल्कि राष्ट्र और समाज निर्माण का दायित्व है, इस भावना से शिक्षण के दायित्व को पूरा करना होगा। गुरु सिर्फ गुरु और शिष्य सिर्फ शिष्य है। दोनों की न कोई जाति होती है न कोई धर्म। गुरु को अपनी गुरुता को बनाए रखने के लिए आम के उस वृक्ष जैसा होना चाहिए जिसकी डालियां फलों के भार से नीचे झुक जाती है और लोगों को फल देती रहती हैं।
गुरुता पाइ गंभीर बनो, जैसे वृक्ष रसाल।
होत फलन के भार से, ज्यों नीचे को डाल।।