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सफर आर्थिक राजधानी की – केशव विवेकी

लेखक: केशव विवेकी, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश

यात्रा प्रारम्भ : पहुँचते ही चर्चा :-

16 जनवरी, 2023 का वह दिन मैं कभी नही भुला सकता, इसलिए नही की मैं उस दिन यात्रा के लिए निकला था बल्कि महीनों पहले खरीदी टिकट होने के बावजूद मैं अपने बोगी में नही घुस पा रहा था। उसके अगले दिन सीटेट की परीक्षा होनी थी और परीक्षार्थियों से भरी ट्रेनों में घुसना मुश्किल हो चुका था। बहुत हिम्मत और लड़ाई करके मै द्वार पर लटक कर चार स्टेशन पार किया। साथ में दो बैग और एक बोरी में कुछ सामान होने के कारण अन्दर जाने में कठिनाई सहनी पड़ी। जैसे-तैसे अपने सीट पर पहुँचा। वैसे तो सीट खाली रहती है पर मुम्बई के ट्रेनों में आपकी सीट खाली नही मिल सकती। बड़े परिश्रम और हो-हल्ला करने के बाद सीट खाली हुई। बिना टिकट के लोग जब स्लीपर में होते हैं तो वो खुद टी.ई.टी बन जाते हैं। जानबूझकर आपके सीट को अपनी बताते हैं और टिकट दिखाने की धमकी भी देते हैं। जैसे आप अपना सीट और बर्थ का प्रमाण देते हैं वो लोग वहाँ से पलायन हो लेते हैं। 

काशी एक्सप्रेस जो दादर नाम से मशहूर गोरखपुर से मुम्बई को जाती है उससे जाने का आनन्द पूर्वांचल के लोगों को अधिक रहता है। आज इस ट्रेन का इन्तजार कोई और भी कर था, वो थे अपने संस्थापक जी। महेश भैया के घर एक विशेष उपहार ले जाना था जिसे मैंने लैपटॉप से तैयार किया था। अरूण भैया को उसे फाइबर स्लैट पर प्रिंट कराके मुझे स्टेशन पर देना था। ट्रेन वाराणसी कैण्ट पर आकर रूकी और संस्थापक महोदय सीधा मेरे बर्थ के खिड़की के पास आकर मुझे आवाज दिये। आपने बोर्ड के साथ ढेरों शुभकामनाएँ दी और न जा पाने का दुख भी जताये। खैर उनकी व्यस्तता के बारे में मैं कुछ कह नही सकता, वो दो मिनट में ही निकल गये। आज भी कोई काम लेना होता है तो कम से कम उन्हें तीन दिन देना पड़ता है। आपके काम में गुणवत्ता दिखती है इसलिए ज़्यादातर लोग हुए विलम्ब को नजरअन्दाज कर देते हैं।

गाड़ी निकल पड़ी; कैण्ट से मुम्बई की ओर, बाकी अनावश्यक भीड़ से मुक्ति कहाँ थी। प्रयाग जंक्शन तक सभी की हालत खस्ता रही और ठण्ड मौसम की वजह से सभी अपने मोटे कपड़े कसे रहे। यहाँ के ठण्ड को देखते हुए मैंने भी एक बैग में कोट और शाल ले रखा था पर मध्य प्रदेश के कुछ हिस्से से निकलते हुए रात्रि में ही सभी ने गाँधी जी का भेष बना लिया। मुझे समझ आया की पूर्वांचल की ठण्ड भारत के हर हिस्से में नही है। पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत मामूली ठण्ड होती है। बाकी केशव चुप रहने से रहे। सामने की सीट के सहयात्री से परिचय बढ़ाये, साथ ही साथ अगल-बगल के लोगों को भी अपना बनाने में सफल रहे। तभी स्टेशन के सूचना प्रसारण का वह ध्वनि संकेत याद आता है, यात्रीगण कृपया ध्यान दें- अपनी सामानों की सुरक्षा स्वयं करें। चलती गाड़ी में किसी अपरिचित से खाने की चीजें न लें… आदि… आदि…।

केशव जहाँ होते हैं वहाँ सहयात्री खाता भी है और खिलाता भी है। फिलहाल अभी कोई किसी को कुछ नही खिला रहा था बल्कि सभी अपना छिपाकर खा रहे थे। पहले दिन तो सामान्य परिचय हुए और टिकट पाने को लेकर हुए संघर्ष की लम्बी व्याख्यानें चलीं। अनंतः मुझे समझ आया की मैंने सिर्फ इस ट्रेन में चढ़ने के लिए मेहनत किया था परन्तु बहुत से लोगों को टिकट पाने में भी मशक्कत करनी पड़ी। बड़े दुख के आते ही कुछ समस्याएँ बौनी हो जाती हैं। सुबह तक वह बोगी ही मेरा परिवार बन चुका था। ट्रेन शाम को करीब 5 बजे तक थाने छोड़ने वाली थी। आमतौर पर यह गाड़ी 6 से 9 घण्टे विलम्ब से चलती है पर उस दिन 5 बजे तक थाने पहुँच गई थी। महाराष्ट्र में प्रवेश करने के बाद इस क्षेत्र के लोकल लोग सामान्य टिकट से स्लीपर की यात्रा कर लेते हैं और उन्हें कोई बोलता भी नही है। इतना ही नही अतिरिक्त चालान भी इनका होते नही देखा। दूर से आ रहे यात्रियों को बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, वो बातें घटित होते देखा। सच्चाई सही है की जनरल से निकल कर स्लीपर में आये लोगों को शान्ति से यात्रा करनी है तो एसी कोच की व्यवस्था कर लें। फिर सवाल उठता है की मिडिल क्लास एसी में आयेगा तो उसके ऊपर वाला कहाँ जायेगा। इतना ही नही तब महँगाई के स्तर मे वो उछाल आयेगा जिसकी कल्पना किसी अर्थशास्त्री ने भी नही किया था।

लम्बी दूरी की यात्रा खासकर देश के अन्दर एक मिडिल क्लास का आदमी जब करता है तो वह जहाँ के लिए निकलता है, वहाँ रहने और खाने की पूरी सुविधा को पहले ही तलाश करके चलता है। मेरा काम कभी-कभी मुझे ही समझ में नही आता है। मैं घर से निकला जरूर था पर कहाँ रूकना था और आगे कैसे क्या होगा, यह निश्चित भी नही कर पाया था। अब जागरूक व्यक्ति जो होगा वोे पता करने का प्रयास करेगा। वैसे तो मैंने महीने भर पहले ही ज़्यादा लोगों को अपने इस यात्रा के बारे मे बता दिया था। 16-17 जनवरी के इस पूरे यात्रा में जहाँ से चला था उस तरफ से ज़्यादा लोगों ने पूछे पर जहाँ के लिए गया उधर से पता करने वालों की संख्या न के बराबर रही। भाभी के बड़े भाई जी का आभार रहा जो मुझे अपने यहाँ पहले ले जाने के लिए बात करते रहे। अच्छा मुझे शादी में जाना था, जिसने आमंत्रित किया वो भी नालासोपारा और जो बात करता रहा वो भी नालासेापारा; तब सोचा कोई बात नही कार्यक्रम जिसके घर है वो व्यस्त होगा, अच्छा होगा वहाँ सुबह चला जाऊँगा। चलते रास्ते में ही सारी तैयारी बना लिया।

करीब 5 बजे थाने स्टेशन पर उतरा और नालासोपारा के लिए मुम्बई लोकल या बस की सुविधा के बारे में विचार करने लगा। तभी महेश जी फोन करके यात्रा के शुरू होने और वहाँ तक आने के बारे में न पूछ पाने का अफसोस जताने लगे जबकि उसी दिन उनके घर पर हल्दी की रस्म भी थी। मै ऐसी बातों को बहुत भारी बनने नही देना चाहता। किसी के घर जाना है और वहाँ क्या अकेले खुदी मेहमान तो हूँ नही। मैं तुरन्त महेश भैया को सुबह मिलने और रात्रि में रूकने के बारे में बताया। आपने सहजता से स्वीकार करते हुए नालासेापारा आने के लिए कहा। मैं लोकल नही पकड़ना चाहा इसलिए जो यात्री बस से जाने वाले थे उनके पीछे हो लिया। 

अब आदमी एक और सामान अनेक, समझ नही आ रहा था की खुद जाऊँ या सामान बाहर करूँ। फिर भी एक बैग को पीठ पर, बोरी को कंधे पर, बड़े बैग पर बोर्ड को रखकर उसके ट्राली से खिंचते हुए चल दिया। कुल वजन इस समय 50 किलो से अधिक रहा होगा। स्टेशन से 700 मीटर दूर लगी बस के पास मै कैसे गया, कह भी नही सकता। स्टेशन के बाहर रिक्शा वालों की भीड़ रही पर मैं तो करने वाला था नहीं पर रिक्शा वालों ने जैसे ही मुझे लादे सब कुछ आते देखा तो एक शोर गूँज गया, ‘‘हटो! हटो! कोई गाँव से यादव जी आ रहे हैं। बोरी किसी पर गिरेगा तो मर ही जायेगा।’’ यह बात मैं अभी तक नही भूला।

बस से चार घण्टे में नालासोपारा वेस्ट पहुँच गया जबकि जाना था ईस्ट में। अब महेश भैया सक्रिय थे, जैसे ही मैं बाजार में उतरा 15 मिनट में मेरे पास पहुँच गये। पहली बार हम दोनों आमने-सामने हुए थे। दोनों गले मिले और एकदूसरे का उत्साह बढ़ाते हुए कमरे पर जाने के लिए उनके बाइक से रवाना हुए। मै आज रूकने की व्यवस्था कर चुका था पर महेश भैया ने कहा; नही, पहले आपको मेरे कमरे पर चलना है फिर वहाँ से पहुँचा दिया जायेगा। अच्छा मै गया उनके साथ और वहाँ सभी से मिला पर उतना किसी ने ध्यान नही दिया क्योंकि 19 को बारात जानी थी, अगले दिन पूजा और प्रतिभोज कराने की तैयारी थी। निकलना चाहा परन्तु इस रात बिना खाना खिलाये छोड़े नही। जैसे-तैसे मैं रात करीब 11 बजे तक भाई साहब के यहाँ पहुँचा। महेश भैया खुद उनके कमरे पर छोड़ने आये थे। रात में यहाँ खाना खाया और सभी सो गये।

मिलन और मुंबई की बारात :-

अगले दिन महेश भैया के यहाँ दोपहर तक पहुँचा। सभी अपने-अपने काम में व्यस्त थे। सभी मेहमानों से परिचय खुद बनाया और परिवार के अन्य लोगों से परिचित हुआ। दिनभर खाना, सोना और लोगों से अपने प्रदेश की राजनीति पर चर्चा करना आदि रहा। सभी लोग मेरे प्रतिक्रिया पर विशेष ध्यान दे रहे थे। सभी के द्वारा अच्छा सम्मान मिला। महेश भैया के माता-पिता, चाचा-चाची का स्वभाव अत्यंत मधुर मिला। इनके भाई जिनके विवाह में शामिल होने आया था वो अच्छे और नेक विचारों के हैं। पूरे दिन सबसे ज्यादा सेवा मेरी हुई जबकि वहाँ बुजुर्गों की संख्या अधिक थी। शाम को प्रीतिभोज का कार्यक्रम शुरू हुआ। खाने से पहले अपने भाई साहब को बुला लिया था। सभी ने साथ में ही भोजन किये। यहाँ भी सबसे पहले मैं ही भोजन शुरू किया था। रात्रि में सोने के लिए साथ ही मे उनके साथ लौट आया क्योंकि महेश भैया के यहाँ भीड़ अधिक रही और मै आराम कर नही पाता। हाँ अगले दिन बारात निकलने को थी इसलिए उस पर भी पहले ही चर्चा कर लिया था।

19 जनवरी, शाम 03 बजे, मैं इस कमरे से निकला बारात में शामिल होने के लिये। वहाँ तैयारियाँ जोरो पर थी फिर भी निकलते-निकलते शाम 05 बज गये। मुम्बई जैसे शहर में सबसे भारी काम है बारात में शामिल होकर मैरेज हाल तक जाना। हमारे यहाँ जितनी दूरी 2 घण्टे में पूरी होती है उसे वो 4 घण्टे में पूरा करते हैं। जैसे-तैसे हम सभी बारात लेकर पहुँचे। वहाँ अधिकतम बाराती पहुँचते ही खाने पर टूट गये। यहाँ अच्छा लगा की लोग जो करते उसमें लाइन लगाकर ही कर रहे थे। हमारे यहाँ कितने भी बड़े हाल में शादी क्यों न हो लोग खाने में एकदूसरे पर लोट जाते हैं। व्यवस्थित रूप से होता काम किसे अच्छा नही लगता। सीधा डोसा खाने की लाइन मे लगा। धीरे-धीरे वहाँ पहुँचा। जैसे ही प्लेट आगे बढ़ाया बना जितना सब खत्म हो गया। अब कुछ देर इंतजार करना था और हर जगह उतना ही भीड़ की मतलब निकले तो गये, फिर सोच लो कुछ मिलने से रहा। मै तब तक नही हटा जब तक पा नही गया। इस खाने के चक्कर में मै भूल गया की यहाँ क्या-क्या होने वाला था।

खाली होते ही महेश भैया की खोज में निकल गया। उधर बारात को सजाकर लाने की तैयार पूरी हो गई थी। बस सिर पर पगड़ी लगवाने का काम तेजी से चल रहा था। मै जैसे ही पहुँचा वहाँ मुझे भी बाँधा गया। अच्छी बात यह रही की पगड़ी का रंग मेरे कुर्ते से मिल रहा था इसलिए देखने मे और अच्छा लग रहा था। बुरा तब हुआ जब खाना खाते वक्त, पगड़ी वाला निकलवा के ले गया। साथ के लोगे ने कहा आपसे नही लेना चाहिए था, पगड़ी आप जच रही थी। फिर भी मुझे कोई ऐतराज नही था। सभी नाचते हुए द्वार पर पहुँचे। द्वार पूजा का रस्म पूरा हुआ। यहाँ नवीनता के रूप में दूल्हे के आसपास दो बॉडीगार्ड लगे हुए थे जिनके एक बोली पर घराती-बराती कोसो दूर हो गये थे पर उत्तर प्रदेश के गानों के आगे वो भी शिथिल पड़ गये। अन्दर हॉल में दोनों नवयुवकों को एक अलग अन्दाज में घूमने वाले चक्कर तक लेकर गये। जमीन पर धुँआ ऐसे फैलाया मानो वो बादलों के बीच भ्रमण कर रहे हों। सब कुछ अच्छा रहा। स्टेज पर गये तो उपहार देने वालों की कतार लग गई। महेश भैया मुझे भी बुलाये। साथ ले गया बोर्ड जिसमें एक मंगल कामना की मेरी कविता और इन नवयुवकों की फोटो लगी थी। सामने खोलते ही चारों तरफ एक गूँज उठ गई की कितना अच्छा बना है पर कैमरा वाले उसे देखते ही मुँह अलग ही बना लिये।

रात्रि में ही लगभग लोगों को लौटना था। सभी भोजन करके बसों में आये। मुश्किल से 10-12 लोग ही शादी कराने के लिए रूके, बाकी सभी वापस हुए। नालासोपारा लौटते-लौटते भोर के 03 बज गये। सभी को सावधानी से कमरे तक ले आया और महेश भैया के माता जी से आज्ञा लेकर उसी समय अपने विश्राम स्थल की ओर चल दिया। यहाँ से 900-1000 मीटर की दूरी पार करना इतना आसान नही था। शुरूआती 500 मीटर तो कोई समस्या नही पर इसके आगे जाना किसी के बस की बात नही थी। कुत्तों का बहुत बड़ा झुण्ड इस गली में था जो कुछ संख्या में बँटकर हर 50 मीटर पर खड़े थे। अब शुरूआती 100 मीटर जैसे-तैसे पार किया पर आगे कुत्तों की आक्रमकता को देखते हुए खुद को मजबूत करना जरूरी हो गया। एक डण्डा लेकर इन कुत्तों को दौड़ना चालू किया, सभी कुछ दूरी पर जाकर अपने प्रतिक्रिया के स्वर को बरकरार रखे। आज अली बाबा 40 चोरों के बीच फँस चुके थे। मैं चलते-चलते सारे कुत्तों की संख्या गिन लिया। ये सभी 40 और मैं अकेला, फिर भी आत्मबल को बनाये रखा। अंततः इन कुत्तों के महाचक्रव्यूह को तोड़ता हुआ कमरे पर पहुँचा। इस दौरान मुझे 45 मिनट लग गये। वहाँ भैया को जगाया और कमरे अन्दर राहत की सांस ली। उन्होंने मेरे और कुत्तों के बीच के प्रलाप का अन्दाजा लगा लिया था। टोके की आने से पहले बता देना चाहिए था, लेने आ जाता। यहाँ आवारा कुत्तों का कोई भरोसा नही, कभी भी किसी को पकड़ लेते हैं। फिलहाल मैं पहुँच गया था और नींद जोरों की थी, सो मैं सो गया। सुबह 08 बजे तक सोता रहा जबकि काम पर जाने वाले लोग अपने-अपने काम पर चले गये थे।  

मुंबई से पुणे :-  
लोगों से मुलाकात करने का काम शुरु किया। पहले दिन मैं नालासोपारा से मैं कलवा निकला जहाँ मेरे मम्मी के फुफेरे भाई भास्कर नगर में रहते थे, उनके पास पहुँचा। दो दिन वहाँ रहने का मिला और उनके एक भाड़े पर रह रहे ड्राइवर साहब से मुलाकात हुई। हम दोनों की आपस में खूब जमी थी। पहली रात में मैं उनसे बातचीत करतेे-करते सो गया और कोई खाना खाने के लिए जगाया भी नहीं। वैसे नींद लगने के बाद खाना की आवश्यकता नहीं रहती। जैसे-तैसे वहाँ से निकला क्योंकि मेरा सफर अभी लम्बा था। मैं वहाँ से अपनी बुआ जी के पास आया जहाँ बहनों ने खूब खातिरदारी कीं। यहाँ भी एक दिन से ज़्यादा समय नहीं दे पाया। पारिवारिक तौर पर बहुत कुछ अच्छा और कुछ खराब हुआ जिसे संक्षेप में बता पाना सम्भव नही है। वापस लौटकर नालासोपारा से मैंने पुणे के लिए तैयारी कर ली। ट्रेन के स्थिति के अनुसार चल पड़ा था।

ट्रेन जिससे मुझे पुणे जाना था उसकी यात्रा चेन्नई तक की रही। अब यात्रा के इस जंजाल को देखिए की मैं भोजपुुरी के क्षेत्र से आता हूँ और महाराष्ट्र में ज़्यादा लोग मराठी बोलते थे और अब यह ट्रेन कर्नाटक जा रही तो कन्नड़ से भी सामना होने वाला था। मैं भागदौड़ करके छत्रपति शिवाजी टरर्मिनल चला गया जहाँ से इस टेªन की यात्रा शुरु होनी थी। जनरल टिकट से यात्रा करना केवल उ0प्र0 और बिहार में ही कठिन नहीं है वरन् यहाँ आकर समझा की यह समसया पूरे देश में है। पहले से पहुँचा व्यक्ति को यदि बैठने का उपाय न हो सके तो सोचो बाद वालों का क्या होगा? खैर मैं एक यात्री के पास खड़ा रहा जो खिड़की की सीट को पूरा फैल कर घेरा हुआ था।

मैं जानता था कि महाशय जितने मनमाने ढंग से कुर्सी को हड़पने के निति से बैठे थे वैसे पुणे पहुँचने वाले नही थे। भीड़ ऐसी बढ़ी की वो अपने बचाव के लिए लोगों के तरफ मुझे बैठा ही लिया। बातचीत होने पर वो आदमी मेरे आजमगढ़ जिले का था। थोड़ा पढ़ाई की अकड़ सबमें दिखाई पड़ती है। फिलहाल मेरा काम बन चला था। रास्ते भर लोगों की भीड़ बनी रही। 4 घण्टे की यात्रा करके मैं शाम 05ः30 बजे पुणे स्टेशन पर उतरा। अब यहाँ वही कहानी शुरु हुई। जिसके यहाँ जाना था उनका मोबाइल बन्द था और मुझे लगा की यहाँ से लौट जाना चाहिए। खैर उन्होंने दूसरे के मोबाइल से मुझसे बात कीं इतने में 45 मिनट बीत गये थे। आपने जो पता दिया वहाँ जाने के लिए टेम्पों करना था जो मीटर के ऊपर ले जा रहे थे जो मेरे लिए ज्यादा था। धीरे-धीरे मैं उस टेम्पों वाले को खोज लिया जो मुझे कम से कम में छोड़ने वाला था। आख़िर मैं पुणे जिनके यहाँ मेहमान बना उनके पास पहुँच गया।

पुणे में जिनके यहाँ आया था वो कोई और नहीं मराठी की जाबज़ कलमकार आदरणीया कांचन मुन जी थीं। हड़पसर नाम भले छोटा लगे पर शहर बहुत बड़ा है। यहाँ कांचन मुन जी के साथ करूणा कंद जी से मुलाकात हुई। जिन लोगों से मैं पिछले एक साल से अधिक समय से जुड़ा हुआ था वो दोनों साहित्यकारा मुझसे उम्र में काफी बड़ी रहीं। इन दोनों नारियों को नमन इसलिए भी करना चाहूँगा की देश में जहाँ लड़कियाँ विवाहोपरांत अपने पुराने कामों को बंद करके केवल गृहस्थी को सम्भालने लगती हैं। सारा काम ठप करके एक दिशा में जीवन को लेकर आगे बढ़ जाती हैं। आप दोनों ने मिलकर मेरा स्वागत किया। आप दोनों मुझे पहले लेकर एक कपड़े के मॉल में लेकर गईं, जहाँ आपसी सहमती से एक टी-शर्ट पसंद करके मुझे उपहार स्वरूप भेंट कीं। कीमत की बात करके उनके इस उपहार के मोल का गणित नहीं करना चाहता, बस इतना है मेरे जैसे पैंट-शर्ट पहने वाले का आराम से दो सेट तैयार हो जाता है। इसके बाद हम वहाँ से निकले पर कहाँ मुझे ज्ञात भी नहीं था।

कांचन दीदी ने अपने बिटिया को साथ उनके स्कूल से लौट रही थी। वो हृदयांगना आज कुछ नाराज सी थी। आपने मेरे बारे में उनको बताया पर इस मामा के प्रति उनमें कोई उतनी उत्साह नहीं थी। 5-7 मिनट चलने के बाद हम एक फास्टफूड की दुकान पर बैठे, जहाँ हमें कुछ नाश्ता करना था। यहाँ पर कांचन दीदी जी ने इतना ज्यादा खिलाया की बस आराम करने की इच्छा रह गई थी। हम सभी ने आपस फ़ोटो लिये और कुछ अन्य लोगों के सहयोग से खिंचवायें। दो स्त्रियों और एक भावी भविष्य के बीच में केशव उपस्थित थे। औपचारिक तौर पर हम सभी एकदूसरे का सम्मान देते हुए आगे बढ़े। यहाँ आयी सबसे बड़ी दीदी जो की मेरे जीवन की सबसे बड़ी कहा जाना चाहिए, उन्होंने स्नेह में नमकीन और जलेबी की लायी पैकिंग को मुझे दे दीं। क्षमा भाव में रहीं की कुछ ज़्यादा कर भी न सकी। मैं आभार ज्ञापित करते हुए कांचन दीदी जी के साथ चल दिया। कुछ प्रमाण पत्र देने जो काव्य प्रहर द्वारा बच्चों को सम्मानित किया गया था, उसे भी करुणा दीदी जी को दिया। बीच बाजार से ही करुणा दीदी अपने घर चली गईं।

15 मिनट की यात्रा करके कांचन दीदी जी के साथ उनके निवास पर पहुँचा। आपके पति इंजनिरिंग के प्रोफेसर हैं और सामाजिक व्यक्तित्व के बहुमूल्य धरोहर भी। आपके घर में प्रवेश करते ही राष्ट्रीय संविधान के शिल्पकार, शिक्षा के महाप्रणेता और मेरे वर्तमान के कीर्ति डॉ. भीम राव अम्बेडकर जी के दर्शन हुए। आपके साथ भगवान महात्मा बुद्ध के दर्शन हुए। एक प्रकार से बौद्धिक शान्ति के साथ तात्विक शांति पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दीदी जी के पति स्वभाव के बहुत अच्छे आदमी हैं। बस आपका रुचि साहित्य और भाषा में उतना नहीं है। जबकि वहाँ भाषा की प्राथमिकता में पहली मराठी, दूसरी हिन्दी और तीसरी अंग्रेजी है। परिचय के कड़ी को बहुत शानदार तरीके से दीदी जी ने पूरा किया। पुनः घर की औपचारिकता को बढ़ाते हुए मिष्ठान व जल सामने लाकर रख दीं। हम दोनों ने ही पानी पी और वार्ता को आगे बढ़ाते गये। उ0प्र0 की राजनीति, अर्थव्यवस्था और शिक्षा के विकास पर ध्यान पूरे देश का बना हुआ जबकि शिक्षा को लेकर उ0प्र0 के 60 फिसदी लोग उस स्तर से नहीं लगे हैं जैसे अन्य राज्यों में देखा जा रहा है। आपके हर प्रश्नों का उत्तर देता गया। उनको अच्छा यह लगा की व्यक्ति जो भी जानता है उसके बारे में स्पष्ट रूप से कह देता है। बाकी विज्ञान और साहित्य को लेकर लड़ने वालों के लिए कोई रास्ता नहीं है क्योंकि इसका सही आभास अगले दिन के मीटिंग से स्पष्ट हो गया था।

रात में भोजन हुआ, उस समय दीदी के सगे बड़े भाई से मुलाकात हुई। आपका साहित्य में रुचि ज्यादा है जिसका प्रमाण यह है कि रात्रि में सोने से पहले मैने आपके कहने पर दो-तीन कविताएँ प्रस्तुत किया और आपके तरफ से काफी उत्साह मिली। रात्रि में सोने की व्यवस्था कहीं दूर की गई थी, वहाँ आपके भाई साहब साथ लेकर गये। उस फ्लैट में एक जैविक खाद की स्टार्टअप किया गया था और मुझे सोने के लिए पीछे के हाल में किया गया था, जहाँ मैं बहुत अच्छे से सोया और सुबह समय से जग गया। अक्सर मैं 04 से 04:30 के बीच जग जाता हूँ। रात्रि में दीदी जी ने कहा था की वहाँ सुबह 07:00 उपस्थित होना है और मैं तैयार रहने का वादा कर चुका था। वहाँ जाने से तात्पर्य अगले दिन गणतंत्र दिवस था और मैं कोशिश में रहता हूँ की राष्ट्रीय पर्व कोई छूटे न। जगा सही पर जगह से अनभिज्ञ था। लाने व सुलाने वाले भी पूरी व्यवस्था से परिचित कराना भूल गये।

सुबह-सुबह जगकर हर कोई पहले फ्रेश होने जाता है और यहाँ तो आयोजन में शामिल होने के लिए तैयार होना था। अब वहाँ कोई नहीं था जिसके कारण मेरा सारा काम बिगड़ गया। लड़का आया 06ः30 बजे तब मैं जल्दी-जल्दी करके तैयार हुआ फिर भी आयोजन स्थल पर सबसे पीछे पहुँचा। अब क्या कर सकता था दीदी को फोन और संदेश दोनों करके थक गया, आपकी प्रतिक्रिया मिली नहीं जबकि पहुँचने पर अनुशासन के मायने में पीछे होने का चोट भी खाया। कार्यक्रम में आये सभी लोगों से परिचित हुआ। आये सभी मेहमानों में सबसे कम उम्र का मैं ही था। दूर से चलकर पहुँचने के कारण सम्मान जरूर पाया पर जाते-जाते किसी को भी प्रभावित न कर सका। सभी लोग कार्यक्रम के लिए खुले जगह पर आये जहाँ सारी तैयारी हो चुकी थी। यह कार्यक्रम एक दत्तक विद्यालय का था और इसे गोद लेने वाले ट्रस्टों के संस्थापकगण पधारें थे। इतना कह सकता हूँ, बच्चों के भविष्य को लेकर आप सभी के कार्य प्रशंसनीय व अपनाने योग्य है।

पहले सभी बच्चे कतार में खड़े हुए, वहाँ सेवा दे रहे शिक्षक व शिक्षिकाएँ हर कदम पर बच्चों का सहयोग कर रही थीं। यहाँ बच्चों के बाद शिक्षिकाओं का विशेष साड़ी के रंग का पहनावा का हुआ था जो अत्यंत प्रिय कहा जा सकता है। सर्वप्रथम ध्वजा रोहण किया गया। तत्पश्चात् राष्ट्रगान गाया गया। यह धुनी मैं करीब एक साल बाद सामुहिक रूप से सुना इसके लिए सभी का आभार! वहाँ के विशेष शैली के अनेक बच्चों द्वारा प्रस्तुति को देखा। कांचन दीदी बहुत सुयोग्य महिला हैं, आप हारमोनियम और ढोलक अच्छा बजा लेती हैं। आपकी मराठी भाषा में लिखी पुस्तक अंर्तमन को आपके प्रधानाचार्य जी के द्वारा स्वागत के रूप दिया गया। आप सभी के द्वारा मिले सम्मान का आभारी हूँ!

कार्यक्रम बहुत लम्बा नहीं था, बस दो घण्टे के अंदर सब कुछ होना था जबकि तीन घण्टे से अधिक लगना कोई बड़ी बात नहीं थी। मराठी भाषा में बच्चों के बाद अतिथियों ने भी अपनी बातें रखीं जो कि अधिकतम 20-30 प्रतिशत ही समझ पाया। सभी का सारांश जोड़ा जाये तो जागरूकता, शिक्षा के प्रति लगाव और देश के क्रांतिकारियों व दिवस के सापेक्ष प्रकाश डाले गये थे। प्रधानाध्यापक जी सभी के वक्तव्य से खुश थे और मैं जितना समझ पाया उतने में मुस्कुराकर काम चलाता रहा। किसी भाषा का ज्ञान होना कितना महत्त्वपूर्ण है आज समझ में आया। दीदी ने प्रधानाध्यापक जी पहले मुझे आमंत्रित किया और एक कविता प्रस्तुत करने की माँग भी कीं।

मैं माइक पर आया और जैसे लगा आज मैं पुणे में खड़ा होकर सम्बोधन नहीं कर रहा बल्कि सम्पूर्ण द्विभाषी क्षेत्रों को मिलाकर एक बड़े मंच पर कुछ कहने का सौभाग्य प्राप्त किया हूँ। अपनी बात जय हिन्द, जय हिन्दी, जय मराठा और जय महाराष्ट्रा से शुरु किया। अपने विचार बिन्दु में डॉ. भीमराव अम्बेडकर, स्वामी विवेकानंद और गौतम बुद्ध को विशेष स्थान दिया। एक बात साफ हो चली थी जो लड़का अपने उम्र और हावभाव से किसी से जुड़ न सका वो अपनी वाणी से एक विशेष स्थान पा लिया था। वक्तव्य का पहला मिनट ऐसा था कि मुख्य अतिथि जी का पूरा ध्यान मुझ पर आ गया। राष्ट्रीय पर्वों के दिन मैं कुछ ज़्यादा जोश में रहता हूँ पर वो चेहरे से नहीं बातों से पता चलता है और इस जोश में कभी मैं किसी देश के विरुद्ध कोई नारा नही लगाता बल्कि खुद के कर्मठता पर प्रकाश डालता हूँ। कहीं सारी बातों को दोहराना आसान नहीं है पर सभी के सद्भावों से कहा जा सकता है की केशव अपने हर अभियान में सफल होने योग्य हैं।

कविता सुनाने के रूप में ‘‘गणतंत्रःएक बोध’’ को सभी के समक्ष रखा जिसके लिए सभी ने सम्मानित किया। उक्त दिवस, सही विषय और कठिन शब्दों के आते ही उसे सरल करके पढ़ते जाना सभी को भा गये। इस मंच ने मुझे वो सब कुछ दिया जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। आभार ज्ञापन में प्रधानाचार्य जी ने भी कविता और मेरे वक्तव्य पर प्रकाश डालें जो की मेरे लिए स्वांतःसुखाय था। कार्यक्रम समाप्त हुए और सभी अपने-अपने गंतव्य की ओर निकले और सभी मेहमानों ने हाथ मिलाये और मेरी ऊर्जा को सबलता प्रदान किये। प्रधानाचार्य जी ने अपने साथ दीदी के घर लाकर छोड़े जहाँ पर प्रोफेसर साहब से आपने भी हालचाल किये और जलपान लेकर आगे बढ़ गये। 

पुणे से सोलापुर :-
आज दोपहर तक यहाँ पर रहा और एक और भाई से मिलने का सौभाग्य हुआ। आप सभी के साथ भोजन लेकर मैं सोलापुर के लिए रवाना हुआ। रात्रि 09ः00 बजे तक मैं सोलापुर में था। यहाँ कमरे तक ले जाने के लिए एक लड़का पहले से उपस्थित था। मैं सकुशल सोलापुर पहुँच गया। यहाँ मेरे मम्मी के ननिहाल के लोग रहते हैं। मम्मी के भईया बुजुर्ग हो चले हैं। मामा-मामी उम्र के ढलने के साथ यहाँ अपने बहू-बेटा और पोते के बीच सुख से रहते हैं। मामा के एक बेटे यानि बड़े भईया जो रेलवे में टीटीई की नौकरी करते हैं। उनका एक ही बेटा है जो इंजिनिरिंग की अच्छी पढ़ाई सोलापुर में ही कर रहा है। वास्तव में यही सुखी परिवार कहा जाता है।  

रात्रि में भोजन करके सोया। अगले दिन भैया ड्यूटी से लौटे और हम सभी ने पूरे दिन आनंद में रहे और अब तक की यात्रा पर चर्चा हुई। मैंने दोपहर में अपनी निबंध ‘‘बातेंःनई-पुरानी’’ से ‘‘श्मशान की रेत’’ को सुनाया। भईया बहुत भावुक हुए और उनके आँसू तक प्रवाहित होकर दिखने लगे। मुझसे पूछे भी कि इसे कितने दिनों में लिखे तो मैंने बताया मैटर एक जगह करने में सप्ताह लगाया और एक दिन-दो घण्टे में लिख डाला। आपके प्रेम और सम्मान के शब्द जो मुझे मिले उसके बारे में कहने में असमर्थ हूँ। शाम को हम एक मंदिर घूमने गये थे। यहाँ दोनों ही लोग बाहरी चीजें खाने से भागते हैं इसलिए कोई अतिरिक्त खर्च नहीं हुआ। यहाँ घूमते हुए आपस में अच्छी बातचीत हुई। दर्शन के दौरान बर्फी प्रसाद के तौर पर मिली जो कि हम कंजूसों के लिए वो भी अधिक कहा जा सकता है। रात्रि में आकर भोजन करके सो गये।

सोलापुर से मुंबई, मुंबई से घर वापसी :- 
अगले दिन भैया को ड्यूटी पर जाना था और मुझे मुम्बई वापस आना था इसलिए शाम को ही तैयारी पूरी करके अगले दिन पहुँच गया। रास्ते में भईया के मित्र मिले जिन्हें कविताएँ सुनाया और भईया के काम के बारे पता चला। वैसे भईया के व्यवहार को लेकर सभी संतुष्ट रहते हैं। मुम्बई में पुनः अपने बड़े पापा के लड़कों के यहाँ अकेले पहुँचा। रात्रि भर रहा उसके बाद महेश भैया के फ्लैट पर आकर रूका। रात्रि में आपके पिता जी मिले जो सबसे ज़्यादा गुणगान मेरे उपहार की कर रहे थे। सुबह महेश भैया, मेरे भैया भाभी के भैया के रूम पर लाकर छोड़ दिये और शाम को मेरी ट्रेन थी इसलिए तैयारी करके वहाँ से शाम को निकल लिया। भैया जी टेम्पों पकड़वाने और साथ में स्टेशन न जा पाने के लिए क्षमा भी माँगे जो मुझे अच्छा नहीं लगा। किसी कन्यापक्ष का औपचारिकता कुछ हद तक ठीक नही लगाता। मैं अपनी यात्रा अपने जरूरत से किया न की कहने पर और आपने साथ दिया तो यह मेरा सौभाग्य कहा जायेगा।

संघर्ष पुरुष की यात्रा कठिन होती चली आया थी। स्टेशन पहुँचा था और टिकट के कंफर्म होने का इंतज़ार था पर रात्रि 10:30 बजे तक टिकट 1 वेटिंग से कंफर्म नहीं हुआ। रात में 12:30 बजे ट्रेन तो पकड़ लिया पर सीट का ठिकाना नहीं रहा। रात में फर्श पर सोकर बिताया और दिन में खड़े होकर यात्रा की। फिर रात्रि तक एक व्यक्ति को मना लिया था जिसके कारण कुछ सो पाया और सुबह 04:00 बजे तक काशी पहुँच गया। समय से होने के कारण बस मिली और सुबह 07:00 बजे तक घर पर पहुँचकर सभी को खबर कर दिया की मैं सकुशल लौट आया हूँ। 

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