सिंध, सिंधी और भारत बटवारा
लेखक: शत्रुघ्न जेसवानी, बिलासपुर
सिंध से बिछड़े हिन्दू सिंधीयों को 77 वर्ष हो गए, जो पीढ़ियां बटवारे के बाद भारत की सीमाओं के अंदर आईं उनमें से अधिकतर अब इस दुनियां में नही हैं, बची हुई उस पीढ़ी के पास यादों के सिवा कुछ भी नही है। 77 वर्षों बाद दो पीढ़ियां आ चुकी हैं जिन्हें अपनी जन्मभूमि से बिछड़ने का क्या गम होता है इसका अहसास ही नही।
देश का बटवारा धर्म के आधार पर हुआ था जिसका असर तीन कौमों पर सबसे अधिक हुआ था पंजाबी, बंगाली और सिंधी, लेकिन पंजाबी व बंगालीयों का दुख दर्द इतिहास बना हम चाहे मंटो की कहानियां देखें या भीष्म साहनी के उपन्यास, सीरियल या फिल्में देखें। मगर सिंधीयों की तकलीफों का जिक्र किसी साहित्यकार ने किसी फिल्मकार ने नही किया यदि किया भी तो बहुत ही संक्षेप में।
गौरतलब है कि पंजाब, बंगाल का बंटवारा सिंध के बंटवारे से बिल्कुल अलग था, पंजाब व बंगाल का बटवारा दो बड़े राज्यों के बीच मे लकीर खींच कर दो हिस्सों में बांटा गया था, जिनके अंदर भाषा, संस्कृति, सभ्यता, खान पान, रहन सहन आदि समान था पर धर्म बहुमत के आधार पर अलग था, मगर सिंध राज्य का बंटवारा उस प्रकार नही किया गया, सिंध पूरा का पूरा इस्लामिक देश पाकिस्तान को सौप दिया गया, हिंदू सिंधीयों को खड़े पैर बेघर कर दिया गया सिंधी दरबदर हो गए।
हैरानी इस बात पे होती है कि साहित्यकार, लेखक या इतिहासकारों ने कभी भी ये जानने की कोशिश नही की कि ऐसा क्यों किया गया जिसकी वजह से लगभग 12 लाख सिंधी दरबदर होने को मजबूर हुए।
अगर देश का बटवारा धर्म पर आधारित था तो सिंध तो भारत के पश्चिमी सीमा का प्रहरी था जहां का अंतिम हिंदू महाराजा दाहिरसेन ने मीर कासिम और अरबों की सेना को चौदह बार भारत से खदेड़ा था, वो सिंध जहां सनातन धर्म चरम पर रहा उन्ही सनातनियों को लावारिस छोड़ दिया गया।
बटवारे के समय सिंध में न तो कौमी दंगा हुआ न ही हिंदू-मुसलमान में नफरत का कोई माहौल बना, सिंध शांत बना रहा अधिकांश हिंदू मानते थे कि बटवारा एक अफवाह है हम फिर वापस अपने घरों में आएंगे। एक दो घटनाओं को छोड़ हिंदू सिंधी-मुसलमान अमन से रह रहे थे, सिंध में कौमी दंगा फसाद न होने का एक खास कारण सिंधीयों का सूफियाना स्वभाव और दूसरा कारण सिंधू नदी के पानी की तासीर जो अलग अलग धर्म होने के बावजूद भाईचारे के लिए प्रेरित करता था, सूफिलिज़्म भले ही सिंध का नही है मगर सिन्धवासियो को शांति प्रिय बनाये रखता है, आज भी लतीफ़ शाह भिटाई, सामी, सचल, सन्त कंवर राम, शदाराम साहिब, बाबा तीरथ दास जैसे सन्त सिंधीयों की रग रग में बसे हैं।
बटवारे का अहसास तो सिंधीयों को बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश से पाकिस्तान गए मुसलमानो के कारण हुआ उन्होंने कौमी दंगो को फैलाने में कोई कसर नही छोड़ी, पहला दंगा 1947 में नही बल्कि 1948 के अंत मे हुआ आजादी के लगभग डेढ़ साल बाद।
सिंध से निकल कर भारत की सीमाओं के अंदर आने के दो रास्ते थे पहला रेलगाड़ी के रास्ते राजस्थान का मरुस्थल पार कर दूसरा पानी के जहाज से मुम्बई या जामनगर गुजरात के रास्ते, सफर मुश्किल था इसके बावजूद 12 लाख हिन्दू सिंधी पहुंचे जहां बंदरगाह और स्टेशन से बाहर आते ही एक अजनबी दुनियां, एक अजनबी भाषा और अजनबी लोग थे जहां की बोली, रहन सहन, काम धंधे सब कुछ नए थे, यहां की बोली, काम धंधे के बारे में कोई जानकारी नही थी ऐसी हालत में नई जिंदगी शुरू करनी थी, अपनी रोजी रोटी और गुजारे की कोशिशें करनी थी, साथ ही अपनी मातृ भाषा, सभ्यता के लिये भी जद्दोजहद करनी थी।
बटवारे के वक्त किसी भी राजनेता ने नही सोचा कि सिंध का बटवारा कैसे होगा, होना तो ये चाहिए था कि पंजाबियों व बंगालियों की तरह सिंधीयों के लिए भी भारत की सीमाओं के भीतर सिंध का हिस्सा दे कर अलग सिंध प्रदेश बनाया जाता, जिससे भारत मे सिंधी सभ्यता संस्कृति को संरक्षण एवं विकास मिलता।
भारत देश की सीमा के भीतर कच्छ(गुजरात) ही ऐसा स्थान था जिसकी भाषा, सभ्यता, संस्कृति सिंध की है, और सिंध की सीमाओं से लगा हुआ है, सिंधियत को बचाये रखने के लिए माकूल जगह साबित हो सकती थी, जहां सिंधीयों को बसाने की कोशिश भी की गई थी इस सम्बंध में सिंधी समाज सेवी नेताओं ने गांधी जी से मुलाकात भी की थी, गांधी जी ने भी सिंधीयों को कच्छ में बसाने के लिए सिंधीयों का समर्थन किया था, कच्छ के राजा कृष्णदेव ने सिंधीयों को बसाने के लिये ‘सिंधी रिसटलमेंट कारपोरेशन’ को 1500 एकड़ फ्रीहोल्ड जमीन दान में भी दी थी, दुर्भाग्यवश तत्कालीन सरकार, राजाओं द्वारा अपनी जमीन अपने रिश्तेदारों को दान में देने से रोकने के लिए एक नया कानून ‘दानपात्र’ नाम का बना कर जमीन देने को रोक लगा दी गई थी, जिसके लिए कानूनी लड़ाई में बहुत वक़्त लग गया तब तक सिंधी अलग-अलग स्थानों पर बसने को मजबूर हो गए।
सिंधीयों के लिए ‘सिंधी भाषी राज्य’ की मांग आज तक उठती रही है, सिंधी समाज को अब समझ मे आ गया है कि बटवारे में मात्र हमारा वतन हमारी मातृभूमि सिंध भौगोलिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि सिंध की धरती के साथ-साथ हमारी भाषा सभ्यता संस्कृति की जड़ें भी छिन गई हैं, कोई भी भाषा सभ्यता व संस्कृति अपनी ज़मीन से जुड़ी होती है, जो अपनी ज़मीन के अभाव में धीरे-धीरे विलुप्त होती दिख रही है।
सतहत्तर वर्षों बाद सिंधीयों को अपना राज्य न होने का नुकसान का अहसास हो रहा है। इसलिए 14 अगस्त को विभाजन के दिन को ‘अखण्ड भारत स्मृति दिवस’ के रूप में बटवारे की विभीषिका को याद किया जाने लगा है। वर्तमान की केंद्र सरकार में संवेदनशील प्रधानमंत्री हैं, उनसे उम्मीदें सारे देश को बहुत हैं, सिंधी नेताओं, समाज सेवक नेताओं को, सिन्धी समाज की पंचायतों, समितियों के प्रमुखों को ततपरता से प्रधानमंत्री के समक्ष अपनी मांग रखनी चाहिये।
(आलेख विभिन्न लेखकों के लेखों के अंश पर आधारित है)