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दोनों के झोले

 रचयिता:  केशव विवेकी

ऐ मेरे साथी! जरा बता दो अभी,
मैं पीठ पर बोरा और तू बस्ता रखा।
उम्र में दोनों छोटे सामान दिख रहे,
मैं धूल में सना, तू नया दिख रहा।।

यह सुकूँन और किस्मत कहाँ मिलती है,
जरा बता दो, माँग लूँ मैं अभी।
मेरे कपड़े फटे, तू अच्छा लग रहा,
फेक दूँ ये बोरे, बस बस्ते ले लूँ अभी।।

गरीब घर से निकला, मुझे बोरा मिला,
तू हैसियत वाला, तुझे झोला मिला।
मैं भूखा-नंगा, फेका बटोरा ही खाऊँ,
पढ़ने निकला, तुझे माँ का परोसा मिला।।

सपने तुम आगे की देखते ही होगे,
मेरे लिए यह सुकूँन, सपना ही रहा।
तेरे आँखों में काजल, इधर कीचड़ भरा,
तेरे खुल-कूद, मस्ती, मेरा सपना ही रहा।।

इस बस्ते में क्या रख बड़ा बनाया,
यह बोरी भरती, खाली होती रहेगी।
तुझे सिखाने वाले वो दिन-रात हैं
मुझे हर रात पथ पर काटनी पड़ेगी।।

ये जिंदगी कितने प्रकार से चल रही?
एक ही पथ पर कितना अंतर हो गया।
एक सज-धज तो कोई मासूम बन रहा,
पीठ पर रखे, निगाहों में अंतर हो गया।।

यह किस्मत कहूँ या लाचारी कहूँ,
दोनों की मर्मता आसान कैसे कहूँ।
छोड़ने के सदन, बहाने अनेक रखे,
किसी की भूख, भविष्य की कहानी हूँ।।

अभी समानता सही ना पहुँच पाई है,
चलते पथ पर मुझे दृश्य ने दिया।
गवाह सारे बालक के मनोदशा की,
बच्चे की आहट कवि को हिला दिया।।

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